NCERT Solutions for Class 12 Sanskrit Chapter 6 सुधामुचः वाचः (अमृत बरसाने वाले वचन)
पाठपरिचयः सारांश: च
          प्रस्तावना
          
          महाकवियों की सूक्तियाँ अथवा सुभाषित हमारे जीवन में पाथेय के समान सहायता करते हैं तथा सन्मार्ग दिखाते हैं। विपत्ति में पड़े मानव इन सुभाषितों से आश्वासन पाते हैं तथा प्रेरणा ग्रहण करते हैं। संस्कृत साहित्य हज़ारों अति मधुर वचनों से अच्छी प्रकार सुशोभित है। जीवन के हर क्षेत्र में प्रेरणादायी ये सुभाषित साहित्य में आसानी से प्राप्त हो जाते हैं।
         
          पाठ-संदर्भ
          
          प्रस्तुत पाठ में कुछ अमृतवर्षी मधुर वचनों का संकलन किया गया है। कुल छह पद्य हैं। प्रथम पद्य ‘सुभाषितरत्नभाण्डागारम्’ से लिया गया है। दूसरा पद्य महाकवि भास के नाटक ‘कर्णभारम्’ से लिया गया है। तीसरा पद्य ‘चाणक्यनीतिः’ से लिया गया है। चौथे व पाँचवें पद्य का संकलन महाकवि भारवि विरचित ‘किरातार्जुनीयम्’ नामक महाकाव्य से किया गया है तथा अन्तिम पद्य भर्तृहरि विरचित ‘नीतिशतक’ से लिया गया है
         
          पाठ-सार
          
          प्रथम पद्य का भाव यह है कि वही लोग सब के वन्दनीय होते हैं जिनमें तीन गुण होते हैं-
         
- जिनके मुख प्रसन्नता के निवास स्थान हैं,
- जिनकी वाणियाँ अमृत बरसाती हैं, तथा
- जिनके कार्य दूसरों की भलाई के लिए होते हैं।
दूसरे पद्य का भाव यह है कि परिवर्तनशील काल में सब कुछ बदल जाता है-विद्या विस्मृत हो जाती है, वृक्ष जड़ से उखड़ जाते हैं तथा जल से भरे स्थान जलहीन हो जाते हैं। ऐसा होने पर भी दो वस्तुएँ सदा स्थायी रहती हैं
- दिया हुआ दान, तथा
- यज्ञ की अग्नि में समर्पित आहुति।।
तीसरे पद्य का भाव यह है कि पुरुष की परीक्षा चार प्रकार से ली जा सकती है-
- त्याग की दृष्टि से,
- शील की दृष्टि से,
- गुणों की दृष्टि से, तथा
- कर्म की दृष्टि से।
चौथे पद्य का भाव यह है कि कपटपूर्ण आचरण करनेवाले व्यक्ति के साथ वैसा व्यवहार न करनेवाले सज्जन पुरुष पराभव को प्राप्त होते हैं, क्योंकि धूर्त लोग तो सदा छिद्रों पर ही प्रहार करनेवाले होते हैं अतः अपने रक्षाकवच के साथ शत्रु के साथ शत्रु जैसा व्यवहार करना चाहिए।
पाँचवें पद्य में कहा गया है कि राजा और मन्त्री को परस्पर विश्वास करके समान दृष्टि बनाकर व्यवहार करना चाहिए तो सब सम्पदाएँ प्राप्त होती हैं। ऐसा न करनेवाला मन्त्री तथा राजा अयोग्य होता है। राजा को मन्त्री का सदुपदेश सुनना चाहिए और मन्त्री को राजा के हित में काम करना चाहिए।
अन्तिम पद्य में व्यवहार की अनेक बातों की परस्पर तुलना की गई है। कौन वस्तु अमृत के समान है और कौन मृत्यु के समान है, इत्यादि। लोभ है तो अवगुणों से क्या, परनिन्दा है तो अन्य बुराइयों से क्या, सत्य है तो तप से क्या, मन पवित्र है तो तीर्थों से क्या, सज्जनता है तो गुणों से क्या, अच्छी महिमा है तो अलंकारों से क्या, अच्छी विद्या होने पर धन से क्या तथा यदि अपयश है तो मृत्यु से क्या। अपयश तो मृत्यु से भी कष्टकर होता है।
          उद्देश्य
          
          प्रस्तुत पाठ का उद्देश्य है कि छात्र कुछ नीतिपरक सुभाषितों को याद करें और उन नीतियों को जीवन में धारण करने का प्रयास करें।
         
मूलपाठः, अन्वयः, शब्दार्थः, सरलार्थश्च
          1. वन्दनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः।
          
          करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः॥ (सुभाषिरत्नभाण्डागारम्)
         
          अन्वयः – येषाम् वदनम् प्रसादसदनम्, हृदयम् सदयम्, वाचः सुधामुचः, करणम् परोपकरणम्, ते केषाम् न वन्द्या:?
          
          शब्दार्थः, पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्चः- वदनम्-मुखम् आननम्, मुख, चेहरा, वेद् + ल्युट्। प्रसादसदनम्-प्रसादस्य प्रसन्नतायाः हर्षस्य, प्रसन्नता का। सदनम्-निकेतनम् गृहम् घर, निवासस्थानम्, प्रसादस्य सदनम्, षष्ठी तत्पुरुषः। सदयम्-दयया सहितम् बहुव्रीहिः, दया से भरा हुआ, दया से युक्त। हृदयम्-मनः, हृदय। सुधामुचः-सुधां अमृतम् मुञ्चति वर्षति इति सुधामुच्, उपपद-तत्पुरुष, प्रथमा विभक्तिः , बहुवचनम्, अमृतवर्षिण्यः, अमृत बरसाती हुई। वन्द्याः -वन्द्, यत् पुं०, प्रथमा विभक्ति, बहुवचनम्, वन्दनीयाः, वन्दनीय, प्रणम्य, प्रशंसनीय।
         
          भावार्थ: – ते जनाः सर्वत्र वन्दनीयाः भवन्ति येषां जीवनं परोपकाराय एव भवति। वस्तुतः तेषां जीवनस्य प्रमुख लक्ष्यम् एव परोपकारः अस्ति। ते सदैव अमृतवर्षिणीं मधुरां च वाणीं वदन्ति। तेषां वदनम् प्रसन्नतायाः निवासस्थानम् एव प्रतीयते। तेषां हृदयं दयापूर्णं भवति।।
          
          प्रसंग – यह श्लोक ‘सुधामुचः वाचः’ पाठ से, तथा मूलतः ‘सुभाषितरत्नभाण्डागारम्’ से लिया गया है। यहाँ मधुर मुख, मधुर वाणी से युक्त परोपकारी जनों को वन्दनीय कहा गया है।
         
          सरलार्थ – जिन लोगों का मुख प्रसन्नता का निवास स्थान है, हृदय दया से भरा है, वाणियाँ अमृत बरसाती रहती हैं, कार्य दूसरों की भलाई करना है, वे लोग किनके द्वारा वन्दनीय (प्रणम्य, प्रशंसनीय) नहीं हैं, अर्थात् वे लोग सबके द्वारा वन्दना के योग्य हैं।
          
          व्याख्या-वे लोग सब जगह वन्दना (पूजा, प्रशंसा) के योग्य होते हैं जिनका जीवन परोपकार के लिए ही होता है। वस्तुतः उनके जीवन का प्रमुख लक्ष्य ही परोपकार है। वे सदा ही अमृत बरसानेवाली मधुर वाणी बोलते हैं। उनका मुख प्रसन्नता के निवास स्थान के समान प्रतीत होता है। उनका हृदय दया से भरा होता है।
         
          2. शिक्षा क्षयं गच्छति कालपर्यया –
          
          त्सुबद्धमूला निपतन्ति पादपाः।
          
          जलं जलस्थानगतं च शुष्यति
          
          हुतं च दत्तं च सदैव तिष्ठति॥ (कर्णभारम्)
         
          अन्वयः – कालपर्ययात् शिक्षा क्षयम् गच्छति। सुबद्धमूलाः पादपाः निपतन्ति। जलस्थानगतम् जलम् च शुष्यति। हुतम् च दत्तम् च सदैव तिष्ठति।
          
          शब्दार्थः, पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्चः- कालपर्ययात्-कालस्य समयस्य पर्ययात् परिवर्तनात्, काले व्यतीते सति, समय के बीत जाने पर, षष्ठी तत्पुरुषः। शिक्षा-शिक्षणम्, उपदेशः, शिक्षा। क्षयं-विनाशं, क्षीणताम्, न्यूनता को। गच्छति-याति, प्राप्नोति, प्राप्त करती है। पादपाः-पादैः पिबन्ति ते, वृक्षाः, वृक्ष। सुबद्धमूला:-सुबद्धानि मूलानि येषां ते, प्रथमा, बहुवचनम्, मजबूत जड़ों वाले। निपतन्ति-नि।पत् लट्, प्रथम पु०. बहुवचनम्, पतनं यान्ति, गिर जाते हैं। जलम्-वारि, पानी। जलस्थानगतं-जलस्य स्थानं गतम्, षष्ठी, द्वितीया तत्पुरुषः, जलस्य गन्तव्यस्थानं गत्वा, (पानी) अपने गन्तव्य स्थान तक गया हुआ। शुष्यति-शुष्कं भवति, सूख जाता है। हुतम्-हु + क्त, अग्नौ हविः रूपेण समर्पितम्, आग में दी हुई आहुति। दत्तम्-दा + क्त, दानम् कृतम्, प्रदत्तम्, दिया गया दान। सततम्-शाश्वतम्, सदा के लिए। तिष्ठति-स्था, लट्, प्रथम पु०, एकवचनम्, स्थितिं प्राप्नोति, रहता है। नष्टं न भवति, विराजते, स्थिर (स्थायी) रहता है।
         
          भावार्थ: – कालः परिवर्तनशीलः। सतत प्रवाहमाणेन कालेन सह विद्या अपि शनैः शनैः विस्मृता भवति। भौगोलिक परिवर्तन कारणात् कदाचित् सुदृढमूलाः वृक्षाः अपि विच्छिन्नाः मूलाः नश्यन्ति। जलस्य गन्तव्यं स्थानमपि कालेन जलहीनं भविष्यति परं यत्किमपि दत्तम् अर्थात् दानरूपेण दीयते यत् च हुतम् अर्थात् यज्ञाग्नौ हविष्यरूपेण दीयते, एतौ सततम् तिष्ठतः।
          
          प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक ‘सुधामुचः वाचः’ पाठ से तथा मूलतः भासकृत ‘कर्णभारम्’ नाटक से लिया गया है। इस पाठ में हवन और दान की महिमा का वर्णन है। उनका स्थायी प्रभाव होता है।
         
          सरलार्थ – समय के बीत जाने पर शिक्षा भी विस्मृत हो जाती है। मजबूत जड़ों वाले पेड़ भी गिर जाते हैं। गन्तव्य स्थान पर गया हुआ जल भी सूख जाता है। किन्तु अग्नि में समर्पित की गई आहुति तथा परोपकार की भावना से किया हुआ दान सदा बना रहता है।
          
          व्याख्या-समय परिवर्तनशील है, बदलता रहता है। सदा गतिमान काल के साथ विद्या भी धीरे-धीरे भूल जाती है। भौगोलिक परिवर्तन के कारणों से कभी-कभी मजबूत जड़ों वाले वृक्ष भी ढूँठ (जीर्ण-शीर्ण) होकर नष्ट हो जाते हैं। गन्तव्य स्थान पर जाने के बाद वह जलवाला स्थान भी जल से रहित हो जाता है। यदि कुछ स्थायी रहता है तो उसमें एक है, दिया गया दान तथा दूसरी वस्तु है, अग्नि में समर्पित आहुति। शेष सब नष्ट हो जाते हैं।
         
          3. यथा चतुर्भिः कनकम् परीक्ष्यते
          
          निघर्षणच्छेदनतापताडनैः।
          
          तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते
          
          त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा॥3॥ (चाणक्यनीतिः)
         
          अन्वयः – यथा निघर्षण-छेदन-ताप-ताडनैः चतुर्भिः कनकम् परीक्ष्यते तथा त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा (च, इति) चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते।
          
          शब्दार्थः, पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्च:- कनकम्-सुवर्णम्, सोना। चतुर्भिः-चतुर्भिः प्रकारैः, चार प्रकार से। निघर्षण-घर्षणेन, घिसाकर। छेदन-छेदनेन. काटकर। ताप-तापेन, तपाकर। ताडनैः-कुट्टनेन, कूटने से। परीक्ष्यतेपरि + √ईक्ष्, कर्मवाच्य, लट्, प्रथम पु०, एकवचनम्, परीक्षणं क्रियते, परखा जाता है।
         
भावार्थ: – सुवर्णस्य परीक्षणं चतुर्भिः प्रकारैः भवति-घर्षणेन, कर्तनेन ऊष्मकरणेन, कुट्टनेन च। सुवर्णस्य इव पुरुषस्य परीक्षणम् अपि चतुर्भिः प्रकारैः भवतिः, यथा-(i) त्यागेन, (ii) शीलेन, (iii) गुणेन, (iv) कर्मणा।
          प्रसंग – प्रस्तुत श्लोक पाठ्यपुस्तक के ‘सुधामुचः वाचः’ पाठ से तथा मूलतः ‘चाणक्यनीति’ से लिया गया है। इस पद्य में त्याग, शील, गुण तथा कर्म के आधार पर पुरुष की परीक्षा का विधान बताया गया है। पुरुष परीक्षा की तुलना सुवर्ण परीक्षा से की गई है।
          
          सरलार्थ – सोने की परख जैसे उसे रगड़ने, काटने, गर्म करने तथा कूटने से होती है, उसी प्रकार पुरुष की परख भी चार प्रकार से होती है-(i) त्याग से (ii) शील (सदाचार से) (iii) गुणों से (iv) कार्यों से।
         
व्याख्या-जिस प्रकार से खरे-खोटे सोने को पहचानने के चार प्रकार (घर्षण, छेदन, ताप तथा ताडन) हैं, उसी प्रकार पुरुष को परखने के लिए भी चार प्रकार होते हैं-(i) त्याग (ii) शील (सदाचार) (iii) गुण (iv) कर्म।
          4. व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं
          
          भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः।
          
          प्रविश्य हि जन्ति शठास्तथाविधा
          
          नसंवृत्ताङ्गान्निशिता इवेषवः॥4॥ (किरातार्जुनीयम्)
         
          अन्वयः – ये मायाविषु मायिनः न भवन्ति, ते मूढधियः पराभवम् व्रजन्ति। शठाः हि निशिताः इषवः इव तथाविधान् असंवृत्ताङ्गान् प्रविश्य घ्नन्ति।
          
          शब्दार्थः, पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पणयश्चः- ते-तत्, प्रथमा, बहुवचनम्, तादृशाः जनाः, वे लोग। मूढधियः-मूर्ख-बुद्धयः, मूढा धीः येषाम्, अविवेकिनः, अविवेकी, मूर्खबुद्धि। पराभवं-पराजयं, पराजय को, हार को, अपमान को, व्रजन्ति-गच्छन्ति, प्राप्नुवन्ति, प्राप्त करते हैं, स्वीकुर्वन्ति, स्वीकार करते हैं। ये-जो जन, यत्, प्रथमा, बहुवचनम्। मायाविषु-माया + विन्, स०, ब० व०, कपटिषु, कपटी लोगों में। मायिनः-माया + इन्, प्रथमा, बहुवचनम्, कपटिनः, कपटी। न भवन्ति-न सन्ति, नहीं होते। शठा:-धूर्ताः, धूर्त लोग। तथाविधान्-तत्प्रकारान्, उस प्रकार के। असंवृताङ्गान्- न संवृतानि असंवृतानि, असंवृतानि अङ्गानि येषां तान्, येषाम् अङ्गानि वस्त्र-कवचादिभिः आवृतानि न सन्ति तान्, खुले हुए अंगोंवाले लोगों को। प्रविश्य – प्र+ √विश् + ल्यप् . प्रवेश कृत्वा, प्रवेश करके।
          
          निशिताः-नि + शि + क्त, तीक्ष्णाः । इषवः-इषु, प्रथमा, बहुवचनम्, बाणाः, शराः, बाण। मन्ति-हन् लट्, प्र० पु०, ब० व०, मारयन्ति, मार डालते हैं।
         
          भावार्थ: – ये जनाः कपटिषु कपटपूर्णम् आचरणं न कृत्वा सरलतया एव व्यवहरन्ति ते मूढाधियः सदैव तिरस्कृताः उपेक्षिताः च भवन्ति। यथा बाणाः अनावृत्तं शरीरं प्रविश्य विनाशयन्ति तथैव शठाः अकुटिलान् जनान् वञ्चयित्वा तान् विनाशयन्ति।
          
          प्रसंग-प्रस्तुत पद्य पाठ्यपुस्तक के ‘सुधामुचः वाचः’ पाठ तथा मूलतः ‘किरातार्जुनीयम्’ (भारविकृत) से लिया गया है। इस श्लोक में कूटनीति के मूल सिद्धान्त को प्रस्थापित किया गया है।
         
          सरलार्थ – जो कपटियों के प्रति कपटी नहीं होते, वे मूर्ख बुद्धि लोग पराजय को प्राप्त करते हैं। जिस प्रकार तीखे बाण खुले अंगों वाले शरीरों में प्रवेश करके प्रताड़ित करते हैं वैसे ही धूर्त लोग छिद्रों को ढूँढकर उनमें प्रवेश करके भोले-भाले लोगों को मार डालते हैं।
          
          व्याख्या – जो लोग कपट भरे लोगों के प्रति कपटपूर्ण व्यवहार नहीं करते अपितु, उनके साथ भी सरलता का व्यवहार करते हैं, वे मूर्ख बुद्धि लोग सदा तिरस्कृत और उपेक्षित होते हैं। जैसे बाण खुले शरीर में प्रवेश कर उसे नष्ट कर डालते हैं वैसे ही धूर्त जन सरल व्यक्तियों को ठगकर उन्हें मरवा देते हैं।
         
          5 स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं –
          
          हितान्न यः सं शृणुते स किंप्रभुः।
          
          सदानुकूलेषु हि कुर्वते रतिं
          
          नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः॥5॥ (किरातार्जुनीयम्)
         
          अन्वयः – यः अधिपम् साधु न शास्ति स किंसखा। यः हितान् न संशृणुते स किंप्रभुः। नृपेषु अमात्येषु च अनुकूलेषु हि सर्वसम्पदः सदा रतिम् कुर्वते।
          
          शब्दार्थः, पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्चः- किंसखा-कुत्सितः सखा, बुरा अयोग्य मित्र। साधु-सम्यक्, क्रियाविशेषणम्, भली प्रकार। अधिपम्-राजानम्, सम्राजम्, राजा को, सम्राट को, अधिसमन्तात् पाति रक्षति सः अधिपः बहुव्रीहिः हितान्-उपदेशान् मन्त्रणाम्, हितकर सलाहों को। किंप्रभु-कुत्सितः स्वामी, बुरा अयोग्य मालिक। अनुकूलेषु-अनुकूल, सप्तमी, बहुवचनम्, समदृष्टियुक्तेषु, समदृष्टि होने पर। सर्वसम्पदः-सर्वाः सम्पदः सम्पत्तः, सारी सम्पत्तियाँ, ऐश्वर्य।
         
          भावार्थ: – यः नृपाय सत्यपरामर्श ददाति स एव योग्यः अमात्यः। यः राजा हितोपदेशकस्य मन्त्रिणः उपदेशं स्वीकरोति स एव योग्यः स्वामी। यत्र राजा मन्त्रिणश्च परस्परं विश्वसन्तः सर्वकार्य सम्पादयन्ति तस्मिन् राज्ये एव सर्वासां सम्पत्तीनां निवासः भवति।
          
          प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक ‘सुधामुचः वाचः’ पाठ से तथा मूलतः भारविकृत ‘किरातार्जुनीयम्’ महाकाव्य से लिया गया है। इसमें राजा और मन्त्री एक-दूसरे के अनुकूल होने पर ही सम्पत्ति प्राप्त कर सकते हैं, यह दर्शाया गया है।
         
सरलार्थ – जो (मित्र, सचिव, अमात्य, मन्त्री) अपने स्वामी (सम्राट, राजा) को अच्छी प्रकार से परामर्श (उपदेश) नहीं देता वह कुत्सित (निन्दित, अयोग्य) मित्र (सचिव) होता है (अर्थात् वह योग्य मित्र नहीं होता)। जो (प्रभु, स्वामी, सम्राट्, राजा) मित्रों (भला चाहनेवालों) के हितकारक वचनों पर अच्छी प्रकार ध्यान नहीं देता (ठीक प्रकार से उन्हें नहीं सुनता) वह कुत्सित (निन्दित. अयोग्य) स्वामी (सम्राट, राजा, प्रभु) होता है (अर्थात् ऐसा स्वामी भी योग्य स्वामी नहीं होता)। राजाओं के तथा मन्त्रियों के अनुकूल (परस्पर समान दृष्टिवाला) होने पर सब प्रकार की सम्पत्तियाँ सदा उनसे प्रेम करती हैं। (प्रीतिपूर्वक उनके पास उपस्थित रहती हैं और उन्हें आनंद देती हैं।)
व्याख्या – जो मन्त्री राजा को ठीक सलाह देता है वही योग्य मन्त्री है। जो राजा ठीक सलाह देनेवाले मन्त्री की सलाह को स्वीकार करता है, वही योग्य स्वामी है। जहाँ राजा और मन्त्री परस्पर विश्वास करते हुए सर्वकार्य सम्पन्न करते हैं, उस राज्य में ही सदा सब सम्पदाओं का निवास होता है।
          लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः
          
          सत्यं चेत्तपसा च किं शुचिमनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
          
          सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः,
          
          सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।।6। (नीतिशतकम्)
         
अन्वयः-लोभः चेत् (तदा) अगुणेन किम् यदि पिशुनता अस्ति पातकैः किम्। चेत् सत्यम् तपसा च किम्, यदि शुचि मनः अस्ति तीर्थेन किम्, यदि सौजन्यम् गुणैः किम्, यदि सुमहिमा अस्ति मण्डनैः किम्, यदि सद्विद्या धनैः किम्, यदि अपयशः अस्ति मृत्युना किम्।
          शब्दार्थः, पर्यायवाचिशब्दाः टिप्पण्यश्चः- अगुणेन-न गुणेन, अवगुण से। पातकैः-पापैः, पापों से। शुचिमनः-पवित्रं मनः, पवित्र मन। सौजन्यं-सुजन + यत्, सुजनता का भाव। सुमहिमा-शोभना महिमा। सद्विद्या-श्रेष्ठ विद्या। यद्यस्ति-यदि + अस्ति। लोभश्चेदगुणेन-लोभ + चेत् + अगुणेन।
          
          भावार्थ:- यदि लोभः अस्ति तदा गुणेन प्रयोजनं नास्ति? परनिन्दायाः भावः यदि जीवने आगतः तदा पातकैः प्रयोजनं न भवति। सत्ये सति तपसः आवश्यकता न भवति। पवित्रे मनसि तीर्थानाम् आवश्यकता न भवति। सज्जनतायां सत्याम् अन्य गुणानाम् आवश्यकता न भवति। यदि शोभना महिमा वर्तते तदा अलंकाराणाम् आवश्यकता एव न अस्ति। सद्विद्यायां सत्याम् अन्यैः धनैः प्रयोजनं न भवति। अपकीर्तिः तु मृत्योः अपि कष्टतरा भवति अथवा अपयशः मृत्योः अपि अधिकं कष्टकारकं भवति इति तात्पर्याथः।
         
प्रसंग-पाठ्यपुस्तक के ‘सुधामुचः वाचः’ से किन्तु मूलतः भर्तृहरि के ‘नीतिशतकम्’ से यह श्लोक लिया गया है। यहाँ लोभ, परनिन्दा, सत्य, मन की पवित्रता, सज्जनता, सुमहिमा, सद्विद्या और अपयश की तुलना क्रमशः अवगुणों, पापों, तपों, तीर्थों, गुणों, अलंकारों, धन-संपदाओं तथा मृत्यु से की गई है तथा पहले के तत्वों को ज्यादा प्रभावी बताया गया है।
व्याख्या-लोभ होने पर अन्य अवगुणों की आवश्यकता नहीं, परनिन्दा में रुचि होने पर अन्य बुराइयों की आवश्यकता नहीं, सत्य का गुण होने पर तप की आवश्यकता नहीं। मन के पवित्र होने पर तीर्थों की आवश्यकता नहीं। सज्जनता होने पर गुणों की आवश्यकता नहीं, अच्छी महिमा होने पर अलंकारों की आवश्यकता नहीं, सद्विद्या हो तो और धनों से कोई प्रयोजन नहीं तथा अपयश हो तो वही सबसे बड़ा कष्टकर है। फिर तो मृत्यु से भी कोई प्रयोजन नहीं रहता।
सरलार्थ-यदि लोभ है तो और अवगुणों से क्या प्रयोजन? यदि चुगलखोरी, निन्दा है तो अन्य बुराइयों (पापों) से क्या प्रयोजन? यदि सत्य है तो तप से क्या प्रयोजन? यदि मन पवित्र है तो तीर्थ से क्या प्रयोजन? यदि सज्जनता है तो अन्य गुणों से क्या प्रयोजन? यदि अच्छी महिमा है तो और आभूषणों से क्या प्रयोजन? यदि अच्छी विद्या है तो धनों से क्या प्रयोजन, यदि अपयश है तो मृत्यु से क्या प्रयोजन?
अनुप्रयोगः
          प्रश्न: 1.
          
          सम्बद्धाः पङ्क्ती : मेलयत
          
 
          उत्तरः
          
 
          प्रश्न: 2.
          
          अधोलिखितप्रश्नानाम् उत्तराणि एकपदेन दीयन्ताम्
          
          (i) वन्द्यानां जनानां मुखं कीदृशं भवति?
          
          (ii) केषां वाणी सुधामयी कथिता?
          
          (iii) कालपर्ययात् का क्षयं गच्छति?
          
          (iv) कीदृशाः पादपाः अपि निपतन्ति?
          
          (v) सुवर्णस्य परीक्षणं कतिभिः प्रकारैः भवति?
          
          (vi) पवित्रे मनसि केषाम् आवश्यकता न भवति?
          
          (vii) मृत्योः अपि कष्टतरं किम् भवति?
          
          (viii) कस्यां सत्याम्.अन्यैः धनैः प्रयोजनं न भवति?
          
          (ix) केषु मायिनः इति भवितव्यम्?
          
          (x) यः अधिपं साधु न उपदिशति स कः उच्यते?
          
          उत्तरः
          
          (i) प्रसादसदनम्
          
          (ii) वन्द्यानाम्
          
          (iii) शिक्षा
          
          (iv) सुबद्धमूलाः
          
          (v) चतुर्भिः
          
          (vi) तीर्थानाम्
          
          (vii) अपयशः
          
          (viii) सद्विद्यायाम्
          
          (ix) मायाविषु
          
          (x) किंसखा
         
          प्रश्न: 3.
          
          अधोलिखितपदेषु सन्धिं कुरुत परिवर्तनं निर्दिशत
          
 
          उत्तरः
          
 
 
          प्रश्न: 4.
          
          अधोलिखितविग्रहपदानां स्थाने समस्तपदानि लिखतविग्रहपदानि समस्तपदम् लिखत
          
 
          उत्तरः
          
 
          प्रश्न: 5.
          
          अधोलिखितपङ्क्तीनां भावम् अनुसृत्य पाठात् चित्वा पङ्क्तिं लिखत
          
          (i) मनुष्यस्य जीवने यदा लोभस्य भावना आगच्छति तदा तस्य अन्ये अवगुणाः महत्त्वहीनाः भवन्ति।
          
          (ii) परनिन्दासमं निकृष्टं पातकं किमपि न अस्ति।
          
          (iii) ये शठे शठतापूर्वकं न व्यवहरन्ति ते अविवेकिनः संसारे सफलाः न भवन्ति।
          
          (iv) यः स्वहितैषिणः वार्ता सम्यक् न शृणोति सः योग्यः नृपः न भवति।
          
          (v) यस्य समीपे श्रेष्ठा विद्या भवति, तस्य कृते अन्यधनानाम् आवश्यकता नास्ति यतो हि विद्याधनं सर्वधनं प्रधानम्।
          
          (vi) यः स्वस्वामिने सत्परामर्शं न ददाति सः योग्यः सचिवः (अमात्यः) भवितुम् न शक्नोति।
          
          उत्तरः
          
          (i) लोभश्चेदगुणेन किम्?
          
          (ii) पिशुनता यद्यस्ति किं पातकै:?
          
          (iii) व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः।
          
          (iv) हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः?
          
          (v) सद्विद्या यदि किं धनैः?
          
          (vi) स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपम्?
         
          प्रश्नः 6.
          
          अधोलिखितश्लोकयोः भावार्थं कोष्ठकात् उचितं पदं चित्वा पूरयत
          
          (क) ये जनाः कपटिषु ………. आचरणं न कृत्वा सरलतया एव व्यवहरन्ति ते …………. सदैव तिरस्कृताः, उपेक्षिताः
          
          भवन्ति। यथा बाण : अनावृतं शरीरं ………….. विनाशयन्ति तथैव …………… अकुटिलान् जनान् ………….. तान् विनाशयन्ति। (प्रविश्य, कपटस्य, शठाः, मूढधियः, वञ्चयित्वा)
          
          (ख) यः नृपाय …………. ददाति स एव योग्यः अमात्यः। यः राजा हितोपदेशकस्य मन्त्रिणः उपदेशं ………….. सः एव योग्यः स्वामी। यत्र राजा मन्त्रिणश्च परस्परं .. ……….. सर्वकार्य सम्पादयन्ति, ………….. राज्ये एव सर्वासा …………… निवासः भवति। (स्वीकरोति, सम्पत्तीनां, सत्परामर्श, तस्मिन्, विश्वसन्तः)
          
          (ग) ते जनाः सर्वत्र …………… भवन्ति येषां जीवनं परोपकाराय एव भवति। वस्तुतः तेषां जीवनस्य प्रमुख लक्ष्यम् एव ………….. अस्ति। ते सदैव अमृतवर्षिणीं मधुरां च ………….. वदन्ति। तेषां वदनम् प्रसन्नतायाः ………….. इव प्रतीयते। तेषां हृदयं …………. भवति। (वन्दनीयाः, निवासस्थानम्, वाणीम्, दयापूर्णम्, परोपकारः)
          
          (घ) कालः परिवर्तनशीलः। सततप्रवहमाणेन कालेन सह विद्या अपि शनैः शनैः ………….. भवति। भौगोलिक परिवर्तनकारणात् कदापि ………….. वृक्षाः अपि विच्छिन्नाः भूत्वा नश्यन्ति। जलस्य गन्तव्यं स्थानमपि कालेन… ………… भविष्यति परं यत्किमपि ………….. अर्थात् दानरूपेण दीयते यत् च ………….. अर्थात् यज्ञाग्नौ हविष्यरूपेण दीयते, एतौ ……………. तिष्ठतः। (स्थिरमूलकाः, दत्तम्, विस्मृता, सततम्, जलहीनं, हुतम्)
          
          उत्तरः
          
          (क) ये जनाः कपटिषु कपटस्य आचरणं न कृत्वा सरलतया एव व्यवहरन्ति ते मूढधियः सदैव तिरस्कृताः, उपेक्षिताः भवन्ति। यथा बाणाः अनावृतं शरीरं प्रविश्य विनाशयन्ति तथैव शठाः अकुटिलान् जनान् वञ्चयित्वा तान् विनाशयन्ति।
          
          (ख) यः नृपाय सत्परामर्श ददाति स एव योग्यः अमात्यः। यः राजा हितोपदेशकस्य मन्त्रिणः उपदेशं स्वीकरोति सः एव योग्यः स्वामी। यत्र राजा मन्त्रिणश्च परस्परं विश्वसन्तः सर्वकार्य सम्पादयन्ति, तस्मिन् राज्ये एव सर्वासां सम्पत्तीनां निवासः भवति।
          
          (ग) ते जनाः सर्वत्र वन्दनीयाः भवन्ति येषां जीवनं परोपकाराय एव भवति। वस्तुतः तेषां जीवनस्य प्रमुख लक्ष्यम् एव परोपकारः अस्ति। ते सदैव अमृतवर्षिणीं मधुरां च वाचं वदन्ति। तेषां वदनम् प्रसन्नतायाः निवासस्थानम् इव प्रतीयते। तेषां हृदयं दयापूर्णम् भवति।
          
          (घ) कालः परिवर्तनशीलः। सततप्रवहमाणेन कालेन सह विद्या अपि शनैः शनैः विस्मृता भवति। भौगोलिक परिवर्तनकारणात् कदापि स्थिरमूलकाः वृक्षाः अपि विच्छिन्नाः भूत्वा नश्यन्ति। जलस्य गन्तव्यं स्थानमपि कालेन जलहीनं भविष्यति परं यत्किमपि दत्तम् अर्थात् दानरूपेण दीयते यत् च हुतम् अर्थात् यज्ञाग्नौ हविष्यरूपेण दीयते, एतौ सततम् तिष्ठतः।
         
          प्रश्नः 7.
          
          कोष्ठकात् शुद्धः अर्थः चीयताम्
          
          (i) प्रसादः – (कृपा, भवनम्)
          
          (ii) सुधा – (अमृतम्, चूर्णम्)
          
          (iii) शुचिः – (शीलम्, पवित्रम्)
          
          (iv) पातकम् – (पतनम्, पापम्)
          
          (v) इषवः – (इच्छाः, बाणाः)
          
          (vi) निशिताः – (नष्टाः, तीक्ष्णा:) ”
          
          (vii) कनकम् – (सुवर्णम्, अन्नम्)
          
          (viii) तापः – (रुग्णः, ऊष्मा)
          
          (ix) ताडनम् – (कुट्टनम्, दण्डम्)
          
          (x) निघर्षणम् – (घोषणम्, घर्षणम्)
          
          उत्तरः
          
          (i) प्रसादः – कृपा
          
          (ii) सुधा – अमृतम्
          
          (iii) शुचिः – पवित्रम्
          
          (iv) पातकम् – पापम्
          
          (v) इषवः – बाणा:
          
          (vi) निशिताः – तीक्ष्णाः
          
          (vii) कनकम् – सुवर्णम्
          
          (viii) तापः – ऊष्मा
          
          (ix) ताडनम् – कुट्टनम्
          
          (x) निघर्षणम् – घर्षणम्
         
          प्रश्न: 8.
          
          मञ्जूषायाः समुचितपदानां चयनं कृत्वा अधोदत्तशब्दानां पर्यायद्वयं लिखत
          
 
 
          उत्तरः
          
 
          प्रश्न: 9.
          
          उचितविभक्तिकं पदं चित्वा रिक्तस्थानानि पूरयत
          
          (i) ………. सति गुणेन प्रयोजनं न भवति। (लोभस्य, लोभे)
          
          (ii) ………. सत्याम् धनस्य आवश्यकता नास्ति। (सद्विद्यायां, सद्विद्यायाः)
          
          (iii) परनिन्दायाः भावः यदि जीवने आगतः तदा ………. प्रयोजनं न भवति। (पातकैः, पातकानाम्)
          
          (iv) ये ………. धूर्तजनेषु सरलतया व्यवहरन्ति ते सफलतां न लभन्ते। (धूर्तजनेभ्यः, धूर्तजनेषु)
          
          (v) योग्यः नृपः ………. आप्तजनात् ध्यानेन हितं आकर्णयति। (आप्तजनात्, आत्मजनेन)
          
          (vi) अपयशः यदि जीवने, किं ………. मृत्युना।। (मृत्योः , मृत्युना)
          
          उत्तरः
          
          (i) लोभे सति गुणेन प्रयोजनं न भवति।
          
          (ii) संविद्यायां सत्याम् धनस्य आवश्यकता नास्ति।
          
          (iii) परनिन्दायाः भावः यदि जीवने आगतः तदा पातकैः प्रयोजनं न भवति।
          
          (iv) ये धूर्तजनेषु सरलतया व्यवहरन्ति ते सफलतां न लभन्ते।
          
          (v) योग्यः नृपः आप्तजनात् ध्यानेन हितं आकर्णयति।
          
          (vi) अपयशः यदि जीवने, किं मृत्युना।।
         
          प्रश्न: 10.
          
          प्रकृतिप्रत्ययान् संयुज्य वाक्यपूर्ति कुरुत
          
          (i) विद्या दत्ता (प्रवृद्ध + टाप्) ………… भवति।
          
          (ii) अष्टावक्र: जनकस्य सभा (प्र + विश् + ल्यप्) …………… ज्ञानगर्वितान् पण्डितान् अपश्यत्।
          
          (iii) रात्रिः (सम् + वृ + क्त) ………….। किमर्थं बहिः (गम् + तुमुन्) ………….. इच्छसि?
          
          (iv) नाहं (दा + क्त) …………….. सम्पत्तिं पुनः आददामि।
          
          (v) साधोः शीलं सर्वत्र (वन्द् + अनीयर्) ………….. भवति।
          
          (vi) (पिशुन + तल्) ……….. मानवहृदयस्य दौर्बल्यम् एव।
          
          (vii) (विनम्र + तल्) ………….. तु अलङ्करणं नरस्य।
          
          (viii) देवालयं (गम् + क्त्वा) …………… तेन दरिद्रेभ्यः फलानि (वि + तृ + क्त) …………..
          
          (ix) नश्वरे संसारे (रम् + क्तिन्) …………. मा भवतु।
          
          (x) मृगेषु (नि + शि + क्त) …………… शराः न प्रयोक्तव्याः ।
          
          उत्तरः
          
          (i) विद्या दत्ता प्रवृद्धा भवति।
          
          (ii) अष्टावक्र: जनकस्य सभा प्रविश्य ज्ञानगर्वितान् पण्डितान् अपश्यत्।
          
          (iii) रात्रिः संवृत्ता किमर्थं बहिः गन्तुम् इच्छसि?
          
          (iv) नाहं दत्तां सम्पत्तिं पुनः आददामि।
          
          (v) साधोः शीलं सर्वत्र वन्दनीयं भवति।
          
          (vi) पिशुनता मानवहृदयस्य दौर्बल्यम् एव।
          
          (vii) विनम्रता तु अलङ्करणं नरस्य।
          
          (viii) देवालयं गत्वा तेन दरिद्रेभ्यः फलानि वितीर्णानि।
          
          (ix) नश्वरे संसारे रतिः मा भवतु।
          
          (x) मृगेषु निशिताः शराः न प्रयोक्तव्याः।
         
पाठ-विकासः
कवि परिचयः
- कर्णभारम्-नाटक के रचयिता महाकवि भास हैं। भास की तेरह रचनाएँ मिलती हैं? प्रतिज्ञायौगन्धरायण, स्वप्नवासवदत्तम्, प्रतिमानाटकम्, पञ्चरात्रम्, अभिषेकनाटकम्, मध्यमनव्यायोगः, अविनाटकम्, चारुदत्तम्, कर्णभारम्, इतवाक्यम्, घटोत्कचम्, अरुजङ्गम, बालचरितम्।
- नीतिशतकम्-इसके रचयिता भर्तृहरि हैं। यह उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। इसमें नैतिक मूल्यों को आधार बनाकर विविध श्लोक दिए गए हैं। वैराग्य तथा शृङ्गार के भावों पर आधारित भर्तृहरि के दो और शतक-‘वैराग्यशतक’ तथा शृङ्गारशतक’ उपलब्ध हैं।
- किरातार्जुनीयम्-यह महाकवि भारवि की एकमात्र रचना है। इसका कथानक ‘महाभारत’ से लिया गया है। इसमें किरात नेषधारी शिव तथा अर्जुन के युद्ध का प्रसंग है। थोड़े शब्दों में विशद अर्थ का वर्णन करने के कारण भारवि अर्थगौरव के लिए प्रसिद्ध हैं, यथा-‘भारवेः अर्थगौरवम्’।
भावविकासः
          (क) तुलना कीजिए-वदनं प्रसादसदनं …………… येषां केषां न ते वन्द्याः ।
          
          जिसके मुख में प्रसन्नता है। देखने पर जिसकी कृपा प्राप्त हो जाती है। जिसके वचन में मिठास है वह तो साक्षात् पुरुषोत्तम है
          
          (क) प्रसादो यस्य वदने, कृपा यस्यावलोकने। वचने यस्य माधुर्यम् स साक्षात्पुरुषोत्तमः। (नराभरणम्)
          
          (ख) तुलना कीजिए-वदनं प्रसादसदनं …….. येषां केषां न ते वन्द्याः । बढ़ती हुई करुणा रूपी अमृत की वर्षा के समान तत्त्वदृष्टियाँ विश्व के उपकार हेतु बनी हैं न कि विकार के लिए (ज्ञानसार)
         
          (ख) न विकाराय विश्वस्योपकारायेव निर्मिताः।
          
          स्फुरत्कारुण्यपीयूषवृष्ट्यः तत्त्वदृष्टयः।। (ज्ञानसारः)
          
          बार-बार घिसाया गया चन्दन सुन्दर गन्ध को देता है। बार-बार काटा हुआ गन्ना स्वादु होता है। बार-बार जला (तपा) हुआ सोना चमक देता है। उत्तम लोगों की प्रकृति प्राणान्त के समय भी विकारग्रस्त नहीं होती।
         
          (ग) घृष्टं घृष्टं पुनरपि पुनश्चन्दनं चारुगन्धं
          
          छिन्नं छिन्नं पुनरपि पुनः स्वादु चैवेक्षुदण्डम्
          
          दग्धं दग्धं पुनरपि पुनः काञ्चनं कान्तवर्ण
          
          न प्राणान्ते प्रकृतिर्विकृतिर्जायते चोत्तमानाम्।। (सुभाषितरत्नभाण्डागार:)
         
          (घ) तुलना कीजिए-हुत्तम् च दत्तं च सदैव तिष्ठति।
          
          दान न करने वाले के गरीबी, रोग, दुःख, बन्धन और व्यसन-ये सब परिणाम हैं। इस कारणदान की विशेषता है। दारिद्र्य-व्याधि-दुःखानि बन्धनं व्यसनानि च।
          
          अदातुः फलमेतानि तस्माद् दानं विशिष्यते।। (चाणक्यसारसंग्रहः)
         
          महाभारतात् गृहीतानि पद्यानि –
          
          (क) प्राणों से भी अधिक महत्वपूर्ण तथा सैकड़ों प्रयत्नों से प्राप्त होनेवाले धन की एक ही उत्तम गति दान है। अन्य तो सब विपत्तियाँ हैं।
          
          आयासशतलब्धस्य प्राणेभ्योऽपि गरीयसः।
          
          गतिरेकैव वित्तस्य दानमन्या विपत्तयः।।1।।
         
          (ख) पशु, पाषाण तथा वृक्ष दान से ही प्रशंसा पाते हैं। दान ही प्रशंसनीय गुण है। अन्य कोटि गुणों से क्या?
          
          दानेन श्लाघ्यतां याति पशुपाषाणपादपाः।
          
          दानमेव गुणः श्लाघ्यः किमन्यैर्गुणकोटिभिः।
         
          (ग) गुणों से ऊँचाई को प्राप्त करता है, ऊँचे आसन पर बैठने से नहीं। महल की चोटी पर बैठा कौआ क्या गरुड़ बन जाता है?
          
          गुणैरुत्तुङ्गतां याति नोच्चैरासनसंस्थितः।
          
          प्रासादशिखरस्थोपि काकः किं गरुडायते।।
          
          तुलना कीजिए-चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते-त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।
         
          (घ) सत्य से पृथ्वी धारण की जाती है। सत्य से ही सूर्य तपता है। सत्य से ही वायु चलती है। सब सत्य में ही प्रतिष्ठित है।
          
          सत्येन धार्यते पृथिवी सत्येन तपते रविः।
          
          सत्येन वाति वायुश्च सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्।।
          
          तुलना कीजिए-सत्यं चे तपसा च किम्।
          
          तुलना कीजिए-सद्विद्या यदि किंधनैः।
         
          (ङ) सब द्रव्यों में सबसे उत्तम द्रव्य विद्या को ही माना जाता है क्योंकि इसे न चुराया जा सकता है, क्योंकि यह मूल्यवान् है तथा क्योंकि यह कभी क्षीण नहीं होता।
          
          सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम्।
          
          अहार्यत्वादनय॑त्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा।।
          
          तुलना कीजिए-व्रजन्ति ते ……….. इवेषवः।
         
          (च) जो मनुष्य जिसके साथ जैसा आचरण करता है उसके प्रति वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, वही कर्म है। कपट आचरण को कपट से ही बरतना चाहिए तथा साधु आचरण को साधु आचरण से ही बरतना चाहिए।
          
          यस्मिन् यथावर्त्तते यो मनुष्यः
          
          तस्मिंस्तथा वर्तितव्यं स धर्मः।
          
          मायाचारो मायया वर्तितव्यः
          
          साध्वाचारः साधुना प्रत्युपेयः।।
         
भाषाविकासः
- महिमा (महिमन् पुं०) प्रथमा-महिमा-महिमानौ-महिमानः।
- किं प्रयोजनम् के योग में तृतीया विभक्ति होती है
- त्व, तल् प्रत्ययों के योग से भाववाचक संज्ञाएँ बनती हैं-त्व-पिशुनत्वम्, महत्त्वम्। तल्-पिशुनता, महत्ता।
- इन के योग से विशेषण पदों का निर्माण होता है-माया + इन् = मायिन् (मायी मायिनौ मायिनः)
- वाच् स्त्रीलिंग के रूप-वाक् वाचौ वाचः। 6. सम्पद् स्त्रीलिङ्ग के रूप-सम्पद् सम्पदौ सम्पदः।
अतिरिक्त-अभ्यासः
          प्रश्न: 1.
          
          निम्नलिखितं पद्यं पठित्वा पदाधारितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि लिखत –
          
          (क) वदनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः।
          
          करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः॥
         
          I एकपदेन उत्तरत – (1/2 x 4 = 2)
          
          (i) वन्द्यानां जनानां मुखं कीदृशं भवति?
          
          (ii) केषां वाणी सुधामयी कथिता?
          
          (iii) वन्द्यानां हृदयानि कीदृशानि भवन्ति?
          
          (iv) वन्द्यानां करणं कीदृशं भवति?
          
          उत्तर:
          
          (i) प्रसादसदनम्
          
          (ii) वन्द्यानाम्
          
          (iii) सद्यानि
          
          (iv) परोपकरणं
         
          II पूर्णवाक्येन उत्तरत – (1 x 1 = 1)
          
          यस्य मुखे प्रसन्नता नित्यं वसति सः नरः कीदृशीं वाणी वदति?
          
          उत्तर:
          
          यस्यमुखे प्रसन्नता नित्यं वसति सः नरः सुधामुचां वाणी वदति।
         
          III. निर्देशानुसारेण उत्तरत – (1 x 2 = 2)
          
          (i) श्लोके ‘येषां’ पदं केभ्यः आगतम्?
          
          (ii) ‘वदनं प्रसादसदनम्’ अनयोः पदयोः विशेषणपदं किम्?
          
          उत्तर:
          
          (i) परोपकारिभ्यः
          
          (ii) प्रसादसदनम्
         
          (ख) शिक्षा क्षयं गच्छति काल पर्ययात्
          
          सुबद्धमूला निपतन्ति पादपाः।
          
          जलं जलस्थानगतं च शुष्यति
          
          हुतं च दत्तं च सदैव तिष्ठति॥
         
          I. एकपदेन उत्तरत – (2 x 1/4 = 2)
          
          (i) कालपर्यायात् का क्षयं गच्छति?
          
          (ii) कीदृशाः पादपाः अपि निपतन्ति?
          
          (iii) कीदृशं जलमपि शुष्यति?
          
          (iv) हुतं दत्तं च कदा तिष्ठति?
          
          उत्तर:
          
          (i) शिक्षा
          
          (ii) सुबद्धमूलाः
          
          (iii) जलस्थानगतम्
          
          (iv) सदैव
         
          II. पूर्णवाक्येन उत्तरत – (1 x 1 = 1)
          
          किं सदैव तिष्ठति?
          
          उत्तर:
          
          हुतं चदतं च सदैव तिष्ठति।
         
          III. निर्देशानुसारम् उत्तरत – (1/2 x 4 = 2)
          
          (i) ‘पादपाः’ कर्तृपदस्य क्रियापदं लिखत।
          
          (ii) ‘दत्तवान्’ पदस्य अर्थे श्लोके किं पदं प्रयुक्तम्?
          
          (iii) ‘शुष्यति’ इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किम्?
          
          (iv) ‘जलजलस्थानगतम्’ अनयोः पदयोः विशेष्यपदं किम्?
          
          उत्तर:
          
          (i) निपतन्ति
          
          (ii) दत्तम्
          
          (iii) जलम्
          
          (iv) जलम्
         
          (ग) यथा चतुर्भिः कनकम् परीक्ष्यते
          
          निघर्षणच्छेदनतापताडनैः।
          
          तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते
          
          त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा॥
         
          I. एकपदेन उत्तरत – (1/2 × 2 =1)
          
          (i) किं ताडनेन परीक्ष्यते?
          
          (ii) पुरुषस्य कति प्रकारैः परीक्षणं भवति?
          
          उत्तर:
          
          (i) कनकम्
          
          (ii) चतुभिः
         
          II. पूर्णवाक्येन उत्तरत (2 × 1 = 2)
          
          पुरुषः केन प्रकारेण परीक्ष्यते?
          
          उत्तर:
          
          पुरुषः चतुभिः प्रकारेण (त्यागेन, शीलेन, गुणेन, कर्मणा) परीक्ष्यते।
         
          III. निर्देशानुसारम् उत्तरत (1/2 × 4 = 2)
          
          (i) ‘परीक्ष्यते’ इति क्रियापरक कर्तृपदं किम्?
          
          (ii) ‘स्वर्णम्’ इति पदस्य कः पर्यायः श्लोके प्रयुक्तः?
          
          (iii) ‘मोहेन’ पदस्य कः विपर्ययः अत्र आगतः?
          
          (iv) ‘कनकम्’ इति कर्तृपदस्य क्रियापदं किम्?
          
          उत्तर:
          
          (i) पुरुषः
          
          (ii) कनकम्
          
          (iii) त्यागेन
          
          (iv) परीक्ष्यते
         
          (घ) व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं
          
          भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः।
          
          प्रविश्य हि जन्ति शठास्तथाविधा
          
          नसंवृत्ताङ्गान्निशिता इवेषवः॥
         
          I. एकपदेन उत्तरत (1/2 × 2 =1)
          
          (i) के इषवः इव प्रविश्य घ्नन्ति?
          
          (ii) मूढधियः कम् व्रजन्ति?
          
          उत्तर:
          
          (i) शठाः
          
          (ii) पराभवम्
         
          II पूर्णवाक्येन उत्तरत (1 × 2 = 2)
          
          (i) कीदृशाः मूढधियः पराभवं व्रजन्ति?
          
          (ii) निशिताः इषवः कीदृशान् जनान् प्रविश्य घ्नन्ति?
          
          उत्तर:
          
          (i) ये मायाविषु मायिनः न भवन्ति ते मूढधियः पराभवं ब्रजन्ति।
          
          (ii) निशिताः इषवः असंवृत्ताङ्गान् जनान् प्रविश्य घ्नन्ति।
         
          III. निर्देशानुसारेण उत्तरत (1 × 2 = 2)
          
          (i) ‘व्रजन्ति ते’ अत्र ‘ते’ इति कर्तृपदस्य क्रियापदं किम्?
          
          (ii) ‘तथाविधान् असंवृत्ताङ्गान्’ अनयोः पदयोः विशेष्यः कः?
          
          उत्तर:
          
          (i) व्रजन्ति
          
          (ii) असंवृत्ताङ्गान्
         
          (ङ) स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं
          
          हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः।
          
          सदानुकूलेषु हि कुर्वते रतिं
          
          नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः॥
         
          I. एकपदेन उत्तरत – (1/2 × 2 = 1)
          
          (i) यः अधिपं न साधु शास्ति, सः कः भवति?
          
          (ii) किं प्रभुः किं न सं शृणुते?
          
          उत्तर:
          
          (i) किंसखा
          
          (ii) हितान्
         
          II. पूर्णवाक्येन उत्तरत – (2× 1 = 2)
          
          सर्वसम्पदः कुत्र सदा रतिं कुर्वते?
          
          उत्तर:
          
          नृपेषु अमात्येषु अनुकूलेषु हि सर्व सम्पदः सदा रतिं कुर्वते।
         
          III. निर्देशानुसारेण उत्तरत – (1/4 × 4 = 2)
          
          (i) ‘कुर्वते’ इति क्रियापदस्य कर्तृपदं किम्?
          
          (ii) ‘किं प्रभुः’ इति कर्तृपदस्य क्रियापदं किम्?
          
          (iii) ‘सुमित्रम्’ पदस्य कः विपर्ययः श्लोके आगतः?
          
          (iv) ‘अमात्येषु अनुकूलेषु’ अनयोः पदयोः किं विशेषणम्?
          
          उत्तर:
          
          (i) सर्वसम्पदः
          
          (ii) संश्रृणुते
          
          (iii) किं सखा
          
          (iv) अनुकूलेषु
         
          (च) लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः
          
          सत्यं चेत्तपसा च किं शुचिमनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
          
          सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः,
          
          सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना॥
         
          I. एकपदेन उत्तरत – (1/2 × 2 = 1)
          
          (i) शुचिमनः सत्यमेव किं भवति?
          
          (ii) जनानां मण्डनं किम् अस्ति?
          
          उत्तर:
          
          (i) तीर्थम् .
          
          (ii) सुमहिमा
         
          II. पूर्णवाक्येन उत्तरत – (1 × 2 = 2)
          
          (i) मृत्युना दु:खतरं किं भवति?
          
          (ii) सर्वोपरि दुर्गुणः कः भवति?
          
          उत्तर:
          
          (i) मृत्युना दु:खतरम् अपयशः भवति।
          
          (ii) सर्वोपरि दुर्गुणः लोभः भवति।
         
          III. निर्देशानुसारम् उत्तरत – (1/2 × 4 = 2)
          
          (i) ‘शुचिमनः’ अत्र विशेषणपदं किम्?
          
          (ii) ‘आभूषणैः’ इति पदस्य अर्थे किं पदं प्रयुक्तम्?
          
          (iii) ‘धनैरपयशो यद्यस्ति’ अत्र ‘अस्ति’ क्रियापदस्य कर्तृपदं किम्?
          
          (iv) ‘दयालुता’ इत्यस्य पदस्य कः विपर्ययः श्लोके प्रयुक्तः?
          
          उत्तर:
          
          (i) शुचि
          
          (ii) मण्डनैः
          
          (iii) अपयशः
          
          (iv) पिशुनता
         
          प्रश्न: 2.
          
          लेखकस्य ग्रन्थस्य च नामनी – (1/2 × 4 = 2)
          
          (i) ‘जलं जलस्थानगतं च शुष्यति हुतं च दत्तं च सदैव तिष्ठति।’
          
          (ii) ‘तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।’
          
          (iii) व्रजन्ति ते मूढाधियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः।’
          
          (iv) ‘स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपम्।’
          
          (v) ‘अपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।’
          
          उत्तर:
          
          (i) लेखक:- महाकविः भासः, ग्रन्थः- कर्ण भारम्
          
          (ii) लेखकः- आचार्यः चाणक्यः, ग्रन्थः- चाणक्यनीतिः
          
          (iii) लेखकः- महाकविः भारविः, ग्रन्थः- किरातार्जुनीयम्
          
          (iv) लेखक:- महाकविः भारविः, ग्रन्थः- किरातार्जुनीयम्
          
          (v) लेखक:- महाकवि भर्तृहरिः, ग्रन्थः- नीतिशतकम्
         
          प्रश्न: 3.
          
          I. निम्नलिखितानां पङ्क्तिनाम् उचितं भावं चित्वा पुनर्लिखत – (1+ 1 +1+1=4)
          
          (क) “करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः ‘।
          
          अर्थात् –
          
          (i) परोपकारी जनाः केनायि वन्दनीयाः न भवन्ति।
          
          (ii) परोपकारिणः कस्यापि वन्दनां न कुर्वन्ति।
          
          (iii) परोपकारिणः सदैव सर्वे वन्दनीयाः भवन्ति।
          
          उत्तर:
          
          (iii) परोपकारिणः सदैव सर्वैः वन्दनीयाः भवन्ति।
         
          (ख) “तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा’।
          
          अर्थात् –
          
          (i) त्यागेन उत्तमेन स्वभावेन सद्गुणेन, सकर्मभि संसारे पुरुषः पूज्यते।
          
          (ii) पुरुषः संसारे स्वजन्मना, जातिभिः गुणैश्च पूज्यते।
          
          (iii) संसारे पुरुषस्य परीक्षा तस्य स्वभावेन, त्यागेन कुलेन च भवति।
          
          उत्तर:
          
          (i) त्यागेन, उत्तमेन स्वभावेन, सद्गुणेन, सुकभमिश्च संसारे पुरुषः पूज्यते।
         
          (ग) “शुचिमनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्’?
          
          अर्थात् –
          
          (i) संसारे सर्वोत्तमं तीर्थं केवलं मनः एवास्ति।
          
          (ii) जनानाम् शुद्धं मनः एव तेषाम् तीर्थ अस्ति।
          
          (iii) संसारे तीर्थे सति शुचिमनः किमर्थम्?
          
          उत्तर:
          
          (ii) जनानाम् शुद्धं मनः एव तेषाम् तीर्थमस्ति।
         
          (घ) “हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः।
          
          अर्थात् –
          
          (i) उत्तमः नृपः सर्वदा सर्व हितवार्ताम् एव शृणोति।
          
          (ii) यः हितवार्ता न शृणोति सः नृपः नास्ति।
          
          (iii) उत्तमः नृपः सर्वदा हितवार्ता न शृणोति।
          
          उत्तर:
          
          (घ) (i) उत्तमः नृपः सर्वदा सर्व हितवार्ताम् एव शृणोति।
         
          II. प्रदत्तानाम् पङ्क्तिनाम् उचितैः पदैः रिक्त स्थानानि पूरयन् भावलेखनं कुरुत (1 x 4 =4)
          
          (क) ‘सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना।’ अस्य भावोऽस्ति यत् जनानां कृते अस्मिन् संसारे
          
          उत्तमा
          
          (i)………….. एव धनं वर्तते। यस्य समीपे विद्या नास्ति सः तु (ii) ………….. एव मन्यते एवमेव यस्य जनस्य संसारे (iii) ………… भवति तेषां तु जीवने अपि (iv) ……….. भवति। यतः अपयशः एव तस्य जनस्य वास्तविकी मृत्युः कथिता।
          
          उत्तर:
          
          (i) विद्या
          
          (ii) निर्धनः
          
          (iii) अपयशः
          
          (iv) मृत्युः
         
          (ख) “तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते, त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा’।
          
          अर्थात् –
          
          संसारे यथा घर्षणेन, छेदनेन, तापेन, ताडनेन च स्वर्णस्य परीक्षा भवति तथैव जनाः (i)………… उत्तमेन स्वभावेन, गुणेन, सुन्दरेण (ii) ………… च जनानामपि परीक्षां कुर्वन्ति। यस्य जनस्य समीपे उपरोक्ताः (iii) ………… गुणाः न भवन्ति तस्य अस्मिन् संसारे जनाः (iv) ………… अपि न कुर्वन्ति। अतः स्वसम्मानार्थम् सर्वेः जनैः गुणानां ग्रहणं तु कर्तव्यमेव।
          
          उत्तर:
          
          (i) त्यागेन
          
          (ii) कर्मणा
          
          (iii) उत्तमाः
          
          (iv) सम्मानम्
         
मञ्जूषा-मृत्युः, निर्धनः, विद्या, कर्मणा, सम्मानम्, उत्तमाः, अपयशः, त्यागेन
          प्रश्न: 4.
          
          निम्न श्लोकं पठित्वा तदाधारितानि रिक्तस्थानानि पूरयन् अन्वयः लिख्यताम्. (1 x 4 =4)
         
          I. वदनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचो वाचः।
          
          करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः॥
          
          अन्वयः – येषाम् ……(i)….. प्रसादसदनम्, हृदयं ………(ii)……… सदयं वाचः सुधामुचः करणं (च)………(iii)……… (भवन्ति) ते (जनाः) ……….(iv)……..न वन्द्याः (भवन्ति)।
          
          उत्तर:
          
          (i) वदनम्
          
          (ii) सदयं
          
          (iii) परोपकरणं
          
          (iv) केषाम्
         
          II. व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं
          
          भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः
          
          प्रविश्य हि जन्ति शठास्तथाविधा
          
          नसंवृत्ताङ्गान्निशिता इवेषवः॥
          
          अन्वयः – ये ……(i)….. मायिनः न भवन्ति ते ………(ii)……… पराभवम व्रजन्ति। शठाः हि निशिताः………(iii)……… इव तथाविधान् ………(iv)………प्रविश्य घ्नन्ति।
          
          उत्तर:
          
          (i) मायाविषु
          
          (ii) मूढधियः
          
          (iii) दूषवः
          
          (iv) असंवृत्ताङ्गान्
         
          III. स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं
          
          हितान्न यः सं शृणुते स किंप्रभुः।
          
          सदानुकूलेषु हि कुर्वते रतिं
          
          नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः॥
          
          अन्वयः – यः ………(i)……… साधु न शास्ति स किंसखा (भवति)। यः ………(ii)……… न संशृणुते सः किंप्रभुः (भवति), नृपेषु ………(iii)……… च अनुकूलेषु हि ………(iv)……… सदा रतिं कुर्वते।
          
          उत्तर:
          
          (i) अधिपम्
          
          (ii) हितान्
          
          (iii) अमात्येषु
          
          (iv) सर्वसम्पदः
         
          IV. शिक्षा क्षयं गच्छति कालपर्ययात्
          
          सुबद्धमूला निपतन्ति पादपाः। जलं जलस्थानगतं च शुष्यति हुतं च दत्तं च सदैव तिष्ठति॥ अन्वयः-कालपर्ययात् ………(i)……… क्षयम् गच्छति, ………(ii)……… पादपाः निपतन्ति ………(iii)……… जलं च शुष्यति हुतम् च ………(iv)……… च सदैव तिष्ठति।
          
          उत्तर:
          
          (i) शिक्षा
          
          (ii) सुबद्धमूलाः
          
          (iii) स्थानगतम्
          
          (iv) दत्तम्
         
          प्रश्न: 5.
          
          निम्नलिखितानां श्लोकांशानाम् परस्परं समुचितरूपेण सम्मेलनं कुरुत(क)
          
          (ख) (i) हुतं च दत्तं च
          
 
          उत्तर:
          
          (i) (5)
          
          (ii) (8)
          
          (iii) (6)
          
          (iv) (2)
          
          (v) (1)
          
          (vi) (7)
          
          (vii) (4)
          
          (viii) (3)
         
          प्रश्नः 6.
          
          निम्न पदानाम् तेषाम् अथैः/विपर्ययैः सह समुचितं मेलनं कुरुतशब्दाः
          
 
          उत्तर:
          
          1. ( ङ)
          
          2. (ज)
          
          3. (छ)
          
          4. (क)
          
          5. (घ)
          
          6. (ग)
          
          7. (च)
          
          8. (ख)
         
 
 
 
 
