NCERT Solutions for Class 11 Sanskrit Chapter 4 यशोधनानां हि यशो गरीयः (यशस्वियों का निश्चय से यश महान् होता है)
          पाठपरिचयः, सारांशः च
          
          पाठपरिचयः
          
          अस्य नाट्यांशस्य कथावस्तु रघुवंशात् संगृहीतम्। रघुवंशः महाकवेः कालिदासस्य श्रेष्ठतमा रचना। कालिदासः विक्रमादित्यस्य नवरत्नेषु गण्यते। अस्य रचनाकालः ई० पू० प्रथम शतकं मन्यते। विक्रमस्य राजधानी उज्जयिनी आसीत्।
         
          सारांशः
          
          अयोध्यायाः महाराजः दिलीपः सपत्नीकः पुत्रप्राप्त्यर्थ गुरोः वसिष्ठस्य आदेशेन आश्रमे एव स्थित्वा ‘नन्दिनी’ नामन्याः धेन्वाः सेवाम् अकरोत्। तस्याः रक्षणार्थम् सः आत्मनः प्राणान् अपि त्यक्तुं तत्परो जातः। सा एव घटना अत्र नाटकरूपे प्रस्तूयते। सर्वेषां प्राणिनां कृते आदर्शः, सम्मानभावः, सेवाभावः च अत्र प्रदर्शिताः।
         
          हिन्दीभाषायां पाठपरिचयः
          
          यह नाट्यांश महाकवि कालिदास के महाकाव्य रघुवंश पर आधारित है। कालिदास विक्रमादित्य के नौ रत्नों में से एक थे। रघुवंश उनकी श्रेष्ठतम कृति है। इसका रचनाकाल प्रथम शताब्दी ई० पू० है तथा प्रदेश उज्जयिनी है।
          
          अयोध्या के महाराज दिलीप गुरु वसिष्ठ के आदेश से आश्रम में ही रहकर नन्दिनी नाम की गाय की सेवा करते थे। वे तथा उनकी पत्नी सुदक्षिणा सन्तान के अभाव से दुःखी होकर ऋषि वसिष्ठ के आश्रम में गए थे तथा ऋषि ने उन्हें कहा था कि यदि यह गाय आपकी सेवा से प्रसन्न होती है तो आपकी इच्छा पूर्ण हो जाएगी। एक बार सिंह से गाय की रक्षा करने के लिए राजा दिलीप ने अपने प्राणों की बाजी भी लगा दी थी। वही प्रसंग यहाँ नाट्यांश के रूप में प्रस्तुत है।
          
          कृषि प्रधान भारत देश के लिए गाय का महत्त्व सर्वविदित है। यही कारण है कि भारतीय साहित्य तथा संस्कृति में सर्वत्र गौ का महत्त्व प्रतिपादित होता है। प्राचीनकाल में भारत के राजा गाय की रक्षा के लिए अपने प्राणों को भी उत्सर्ग (बलिदान) करने के लिए तत्पर रहते थे।
         
क. मूलपाठः, अनुवादः, शब्दार्थः, सरलार्थश्च
          1. स्थानम् – घनं वनम्
          
          समयः – मध्याह्नवेला
          
          (नन्दिनीम् अनुगच्छन् दिलीपः प्रविशति।)
         
          दिलीपः – (आत्मगतम्) अहो प्रकृत्याः सौन्दर्य विलक्षणम्। एषा कलकलनिनादिनी भागीरथी द्रुतवेगेन प्रवहति। पुरत; हिमाच्छन्नः गिरिराजः। कुसुमैः समृद्धाः तरवः पक्षिणां कलरवैः चित्तं हरन्ति। (नेपथ्ये सिंहगर्जना भवति।)
          
          अये, सिंहः प्राप्तः। (आशङ्कां नाटयन्)
          
          अत्र नन्दिनी न दृश्यन्ते। कुत्र नु गता भवेत्? पश्यामि एनाम्। (त्वरितं परिक्रम्य) हा धिक्, सिंहेन आक्रान्ता नन्दिनी क्रन्दति। रक्षामि एनाम्। (धनुः उद्यम्य) (आकाशभाषितम्) तिष्ठ रे तिष्ठ दुरात्मन्! आर्तानां परित्राणम् इक्ष्वाकूणां कुलव्रतम्। त्वां दण्डयितुम् एषः दिलीपः समुपस्थितः। किं वदसि? मया रुचिकर भोजनं प्राप्तम् इति। नैव, नैव। त्वां हत्वा गां रक्षामि। (निषङ्गात् शरं निष्कासयितुम् इच्छति।) (आत्मगतम्) अये! किमिदं जातम्? मम हस्तः शरे सक्तः जातः। हा! बलं प्रयुज्य अपि हस्तं मोचयितुं न प्रभवामि। अधुना किं करोमि? कथम् एनां रक्षामि?
         
शब्दार्थः – यशोधनानाम् – कीर्तिविभवानाम् (जो यश को सबसे बड़ा धन मानते हैं उनके)। गरीयः- सर्वोत्कृष्टम् (सबसे उत्तम)। द्रतवेगेन- तीव्रगत्या (शीघ्र गति से)। हिमाच्छन्नः- हिमाच्छादितः (बर्फ से ढका हुआ)। कलरवै:निनादैः (शब्दों से)। अनुगच्छन्- अनुसरन् (पीछे जाता हुआ)। गिरिराज:- गिरीणां राजा (पर्वतराज)। समृद्धाः- परिपूर्णाः (भरे हुए)। सिंहगर्जना- सिंहस्य गर्जनम् (शेर की दहाड़)। आक्रान्ता- प्रहता (आक्रमण किया गया)। उद्यम्य- उत्थात्य (उठाकर)। दुरात्मन्- दुष्ट (दुर्जन)। परित्राणम्- रक्षणम् (रक्षा)। कुलव्रतम्- कुलस्य प्रतिज्ञा (कुल या खानदान की परम्परा, कुल की प्रतिज्ञा)। सक्तः- प्रतिरुद्धः (जुड़ गया)। निषङ्गात्- तूणीरम् (तरकस से)। निष्कसयितुम्- उद्धर्तुम् (निकालने की)। मोचयितुम्- मुक्तं कारयितुम् (छुड़ाने के लिए)। प्रभवामि- शक्नोमि (समर्थ होता हूँ)।
          सरलार्थ – स्थान-घना जंगल। समय-दोपहर की वेला। (नन्दिनी के पीछे चलता हुआ दिलीप प्रवेश करता है।)
          
          दिलीप – (मन-ही-मन) अहो, प्रकृति की सुन्दरता अद्भुत है। यह कलकल करती हुई गंगा तीव्र गति से बह
          
          रही है। सामने बर्फ से ढका हुआ पर्वतों का राजा हिमालय। फलों से लदे हुए वृक्ष, पक्षियों के मधुर शब्द मन को आकर्षित कर रहे हैं (परदे के पीछे सिंह की दहाड़ होती है।)। अरे! सिंह आ गया है (आशंका का अभिनय करता हुआ।) यहाँ नन्दिनी नहीं दिखाई दे रही है। कहाँ चली गई? इसे देखता हूँ। (जल्दी चारों ओर घूमकर) हा, धिक्कार है, सिंह से पकड़ी हुई नन्दिनी चिल्ला रही है। मैं इसकी रक्षा करता हूँ। (धनुष उठाकर) (आकाशवाणी) रुक, रे दुष्ट! रुक। दुखियों की रक्षा करना ही इक्ष्वाकुओं का कुलधर्म है। तुझे दंडित करने के लिए यह दिलीप उपस्थित हो गया है। क्या कहते हो? मुझे मनपसन्द भोजन प्राप्त हुआ है। नहीं, नहीं। तुझे मारकर मैं गाय की रक्षा करता हूँ। तरकस से बाण निकालने की इच्छा करता है। (मन-ही-मन) अरे, यह क्या हो गया? मेरा हाथ बाण पर ही जुड़ गया। हाय! बल प्रयोग करके भी हाथ छुड़ा नहीं पा रहा हूँ। अब मैं क्या करूं? कैसे इसकी रक्षा करूँ?
         
          2. सिंहः – (मनुष्यवाचा) हा हा हा, मां हन्तुम् इच्छसि? पश्य, तव शक्तिः मया प्रतिरुद्धा। वायुवेगः पादपान् उन्मूलयितुं शक्नोति, न तु पर्वतान्। जानासि किं, कोऽहम्?
          
          दिलीपः – कथं न जानामि। त्वं दुष्टः आततायी च।।
          
          सिंहः – राजन्! श्रूयतां तावत्। भगवता शङ्करेण एतस्य वनस्य रक्षार्थ नियुक्तः किरोऽस्मि। मम नाम कुम्भोदरः। अद्य सौभाग्यात् मम व्रतस्य पारणायै एषा धेनुः स्वयम् उपस्थिता।
          
          दिलीपः – हे मृगराज! भगवान् शिवः ममापि आराधनीयः देवः, किन्तु भवान् एतां हन्तुं न अर्हति। एषा मम गुरोः वसिष्ठस्य होमधेनुः। संसारे मनसाऽपि कश्चित् अस्याः अनिष्टं कर्तुं न शक्नोति। भवता तु रुद्रौजसा अस्यां प्रहारः कृतः।
          
          सिंहः – किं तेन? यदि अस्याः विनाशेन गुरुः क्रुद्धः भवति, तर्हि अन्याः कोटिशः गाः प्रदाय तं तोषयितुम् अर्हति भवान्।
          
          दिलीपः – नैतत् शक्यम्! त्वं मम शरीरेण क्षुधां शमय गां च परिमुञ्च।
          
          शब्दार्थः – हन्तुम्- मारयितुम् (मारने के लिए)। प्रतिरुद्धा- अवरुद्धा (रुक गई है)। पादपान्- वृक्षान् (वृक्षों को)। उन्मूलयितुम्- उत्खातुम् (उखाड़ने के लिए)। किङ्कर- सेवकः (नौकर)। परणायै- व्रतान्ते क्रियमाणाय भोजनाय (व्रत की समाप्ति पर किए जाने वाले भोजन के लिए)। आततायी- अत्याचारी (क्रूर)। अनिष्टम्- अहितम् (क्षति को)। रुद्रौजसा- महादेवस्य तेजसा (महादेव की शक्ति से)। तोषयितुम् अर्हति- सन्तुष्टं कर्तुं समर्थः (प्रसन्न कर सकते हैं।) शमय- शान्तां कुरु (शान्त करो)।
         
          सरलार्थ –
          
          सिंह – (मनुष्य की आवाज़ में) हाय, हाय, हाय, मुझे मारना चाहते हो? देखो, मेरे द्वारा तुम्हारी शक्ति रोक दी गई है। वायु का वेग वृक्षों को तो उखाड़ सकता है किन्तु पर्वतों को नहीं। क्या तुम जानते हो कि मैं कौन हूँ?
          
          दिलीप – कैसे नहीं जानता? तुम दुराचारी व अत्याचारी हो।
          
          सिंह – हे राजन्! तो सुनो। भगवान् शंकर के द्वारा इन वनों की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया मैं उनका सेवक हूँ। मेरा नाम कुम्भोदर है। आज सौभाग्य से मेरे व्रत को खोलने के लिए भोजन के रूप में यह गाय स्वयं ही आ गई है।
          
          दिलीप – हे मृगराज सिंह! भगवान् शिव मेरे भी पूज्य देव हैं किन्तु आप इसको न मारें। यह मेरे गुरु वसिष्ठ की होम क्रियाओं के निमित्त रखी हुई गाय है। संसार में मन से भी कोई इसको हानि नहीं पहुँचा सकता। आपने तो रुद्र के तेज के द्वारा इस पर प्रहार किया है।
          
          सिंह – उससे क्या? यदि इसके विनाश से गुरु को क्रोध होता है तो आप उन्हें दूसरी करोड़ों गाय देकर भी प्रसन्न कर नही सकते हैं।
          
          दिलीप – यह नहीं हो सकता। तुम मेरे शरीर से अपनी भूख मिटा लो और इस गाय को छोड़ दो।
         
          3. सिंहः – किमेवम्। एकस्याः धेनोः कृते प्राणान् अपि दातुम् उद्यतोऽसि! शृणु राजन्!
          
          एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वम्
          
          नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च।
          
          अल्पस्य हेतोः बहु हातुमिच्छन्
          
          विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्॥
          
          दिलीपः – अहं मूढो वा बुधो वा-एतत् परिहाय धेनुं मुञ्चतु भवान्।
          
          शब्दार्थः – एकस्याः धेनोः कृते- एकस्यै धेन्वै (एक गाय के लिए)। एकातपत्रम् – एकच्छत्रम् (चक्रवर्ती साम्राज्य को)। प्रभुत्वम्- स्वामित्वम् (अधिकार को)। वयः- आयुः (उम्र)। हातुं- त्यक्तुं (छोड़ने के लिए)। विचारमूढःविवेकहीनः (मूर्ख)। परिहाय- त्यक्तुम् (छोड़ने के लिए)।
         
          सरलार्थ –
          
          सिंह – ऐसा क्यों, एक गाय के बदले तुम अपने प्राण भी देने के लिए तत्पर हो? सुनो राजन्-(तुम्हारे पास) चक्रवर्ती साम्राज्य, एकछत्र संसार का स्वामित्व, नवयौवन तथा यह सुन्दर शरीर (है)। थोड़े के लिए बहुत वस्तुओं का त्याग करने की इच्छा करने वाले तुम मुझे विवेकहीन. प्रतीत होते हो।
          
          दिलीप – ‘मैं’ मूर्ख हूँ या विद्वान हूँ, इस बात को छोड़कर आप इस गाय को छोड़ दें।
         
          4. सिंहः – राजन्! त्वां न हन्तुम्, इच्छामि। त्वं तु अहिंस्यः।
          
          दिलीपः – किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं, यशः शरीरे भव मे दयालुः। एकान्तविध्वंसिषु मद्विधानां, पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु।।
          
          सिंहः – तथास्तु! अद्याहं तव देहेन क्षुधां शमयामि, गां च मुञ्चामि।
          
          दिलीपः – अनुगृहीतः अस्मि! आत्मकृत्यं सम्पादय। (नृपः दिलीपः भूमौ अधोमुखः तिष्ठति, सहसा आकाशात् तस्मिन् पुष्पवृष्टिः भवति।)
          
          शब्दार्थः – अहिंस्य- न हिंसायोग्यः (न मारने योग्य)। यशः शरीरे- यशः एव शरीरं, तस्मिन् (यश रूपी शरीर पर)। एकान्तविध्वंसिषु- निश्चितविनाशवत्सु (निश्चित रूप से नष्ट होने वाले)।
         
          सरलार्थ –
          
          सिंह – हे राजन्! मैं तुम्हें मारना नहीं चाहता। तुम हिंसा के योग्य नहीं हो।
          
          दिलीप – यदि मैं तुम्हारे लिए कुछ भी हिंसा के अयोग्य हूँ तो तुम मेरे यशरूपी शरीर के प्रति दयालु बनो। पंचभूतों से बने इन निश्चित विनाशवान् शरीरों के प्रति निश्चय ही मेरे जैसों की आस्था नहीं होती है। अपितु अश्रद्धा होती है।
          
          सिंह – वैसा ही हो। आज मैं तुम्हारे शरीर से अपनी भूख शान्त करता हूँ और गाय को छोड़ देता हूँ। दिलीप – मैं आभारी हूँ। आप अपनी क्रिया करें। (राजा दिलीप भूमि पर नीचे मुख करके बैठे हैं, अचानक उन पर आकाश से फूलों की वर्षा होती है।)
         
          5. नन्दिनी – वत्स! उत्तिष्ठ, प्रसन्नाऽस्मि ते।
          
          दिलीपः – (उत्थाय) मातः! क्वासौ सिंहः? सः न दृश्यते।
          
          नन्दिनी – (सस्नेहम्) पुत्र! सः तु मायासिंहः आसीत्, तव भक्तिं परीक्षितुं मयैव प्रकटीकृतः। नूनं तव भक्तिः अपूर्वा। त्वं सफलकामः भूत्वा चक्रवर्तिनं पुत्रम् आजुहि।
          
          दिलीपः – अनुगृहीतः अस्मि! भवत्याः आशीर्वचनेन लब्धं मया सर्वम्। (उभौ आश्रमं प्रति परिक्रामतः)
          
          शब्दार्थः – मायासिंहः- मायारूपीसिंहः (मायावी सिंह)। परीक्षितुम्- परीक्षां कर्तुम् (परखने के लिए)। पटाक्षेपःपटस्य आक्षेपः, यवनिकायाः पतनम् (पर्दे का गिरना)।
         
          सरलार्थ –
          
          नन्दिनी – हे वत्स! उठो, मैं तुम पर प्रसन्न हूँ।
          
          दिलीप – (उठकर) हे माता! कहाँ है वह शेर! वह तो दिखाई नहीं देता।
          
          नन्दिनी – (स्नेहपूर्वक) पुत्र! वह तो मायावी सिंह था, तुम्हारी भक्ति की परीक्षा के लिए मेरे द्वारा ही प्रकट किया गया था। निश्चय ही तुम्हारी भक्ति अद्वितीय है। तुम सफल कामना वाले होकर चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त करो।
          
          दिलीप – मैं आभारी हूँ। आपके आशीर्वाद से मुझे सब-कुछ मिल गया है। (दोनों आश्रम की ओर घूमते हैं।) (पर्दा गिरता है)
         
ख. अनुप्रयोगस्य-प्रश्नोत्तराणि
          1. अधोलिखितानां पदानां शुद्धम् उच्चारणम् कुरुत (निम्नलिखित पदों का शुद्ध उच्चारण कीजिए) –
          
          (क) प्रकृत्याः
          
          (ख) हिमाच्छन्नः
          
          (ग) कुलव्रतम्
          
          (घ) निष्कासयितुम्
          
          (ङ) कोऽहम्
          
          (च) रुद्रौजसा
          
          (छ) किमप्यहिंस्यस्तव
          
          (ज) पिण्डेष्वनास्था
         
          2. प्रसङ्गानुसारं तं तं भावं प्रदर्शयन्तः अभिनयं कुरुत (प्रसंग के अनुसार उस भाव को प्रदर्शित करते हुए अभिनय कीजिए) –
          
          (क) (आकाशभाषितम्) तिष्ठ रे तिष्ठ दुरात्मन्। आर्तानां परित्राणाय इक्ष्वाकूनां कुलव्रतम्। त्वां दण्डयितुम् एषः दिलीपः समुपस्थितः।
          
          (ख) सिंह:-(मनुष्यवाचा) हा हा हा, मां हन्तुम् इच्छसि। पश्य, मया तव शक्तिः प्रतिरुद्धा। जानासि किं, कोऽहम्?
          
          (ग) अहं मूढो वा बुधो वा-एतत् परिहाय धेनुं मुञ्चतु भवान्, इमां रक्षितुं देहार्पणाय तत्परोऽहम्।
          
          (घ) तथास्तु! अद्याहं तव देहेन क्षुधां शमयामि गां च मुञ्चामि।
          
          (ङ) (सस्नेहम्) पुत्र! नूनं तव शक्तिः अपूर्वा। त्वं सफलकामः भूत्वा चक्रवर्तिनं पुत्रम् आप्नुहि।
          
          उत्तरः
          
          (क) क्रोधः
          
          (ख) वीरता, साहसः
          
          (ग) विनम्रता
          
          (घ) अनुग्रहः
          
          (ङ) प्रसन्नता।
         
          3. अधः समस्तपदानां विग्रहाः दत्ताः। पाठात् विचित्य विग्रहस्य समक्षं समुचितं समस्तपदं लिखत (नीचे समस्तपदों के विग्रह दिए गए हैं। पाठ से चुनकर विग्रह के सामने समस्तपद लिखिए) –
          
 
          उत्तरः
          
          (क) हिमाच्छन्नः
          
          (ख) गिरिराजः
          
          (ग) विचारमूढः,
          
          (घ) द्रुतवेगेन
          
          (ङ) अधोमुखः
          
          (च) सस्नेहम्
          
          (छ) सफलकामः।
         
          4. अधोलिखितानां समानार्थकानि पदानि पाठात् चित्वा लिखत (निम्नलिखित के समानार्थक पदों को पाठ से चुनकर लिखिए) –
          
 
 
          उत्तरः
          
          (क) भागीरथी
          
          (ख) पुरतः
          
          (ग) गिरिराजः
          
          (घ) कुसुमैः
          
          (ङ) तरवः
          
          (च) सिंहः
          
          (छ) पक्षिणाम्
          
          (ज) भूमौ।
         
          5. निर्देशानुसारं शुद्धं क्रियारूपं लिखत (निर्देशानुसार शुद्ध क्रियारूप लिखिए) –
          
          (क) राजन्! त्वं कथं मां ……………। (हन्, लुट्)
          
          (ख) अहं धेनुं ………………………………। (मुच्, लट्)
          
          (ग) वत्स! प्रसन्ना अस्मि ते। ……………………..। (उत् + स्था, लोट)
          
          (घ) एकस्याः धेनोः कृते प्राणान् अपि दातुम् उद्यमः ………………………………। (अस्, लट्)
          
          (ङ) अहं तव देहेन क्षुधां ………………………………। (शम् + णिच्, लट्)
          
          उत्तरः
          
          (क) हनिष्यसि
          
          (ख) मुञ्चामि
          
          (ग) उत्तिष्ठ
          
          (घ) असि
          
          (ङ) शमयामि।
         
          6. समुचितैः क्तान्तविशेषणपदैः रिक्तस्थानपूर्तिः क्रियताम् (समुचित क्तान्त विशेषणपदों से खाली स्थान भरिए) –
          
          (क) पुरतः ……………………… गिरिराजः।
          
          (ख) सिंहेन …………………… नन्दिनी क्रन्दति।
          
          (ग) मम हस्तः शरे …………….. जातः।
          
          (घ) अस्याः विनाशेन गुरुः …………….. भवति।
          
          (ङ) एतस्य वनस्य रक्षार्थ …………….. अहं शङ्करस्य किङ्करोऽस्मि।
          
          उत्तरः
          
          (क) हिमाच्छन्नः
          
          (ख) आक्रान्ता
          
          (ग) सक्तः
          
          (घ) क्रुद्धः
          
          (ङ) नियुक्तः।
         
          7. अधः कानिचित् कथनानि चारित्रिकमूल्ययुक्तानि। मञ्जूषायाः तं तं भावं विचित्य कथनानां समक्षं लिखत (नीचे कुछ कथन चारित्रिक गुणों से युक्त हैं। मंजूषा से उन-उन भावों को चुनकर कथनों के सामने लिखिए) –
          
          भावः
          
          (क) त्वां दण्डयितुम् एषः दिलीपः समुपस्थितः। (……………………………………)
          
          (ख) अत्र नन्दिनी न दृश्यते। कुत्र नु गता भवेत्। (……………………………………)
          
          (ग) अल्पस्य हेतोः बहु हातुम् इच्छन् विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्। (……………………………………)
          
          (घ) यशः शरीरे भव मे दयालुः।। (……………………………………)
          
          (ङ) वत्स! उत्तिष्ठ! प्रसन्नास्मि ते। (……………………………………)
          
          (च) त्वं सफलकामः भूत्वा चक्रवर्तिनं पुत्रम् आप्नुहि। (……………………………………)
          
          (छ) भवत्याः आशीर्वचनेन लब्धं मया सर्वम्। (……………………………………)
          
          (ज) अग्रे स्थितम् अपि अपराधिनं दण्डयितुं न शक्नोमि।(……………………………………)
          
          मञ्जूषा – आशीर्वादः, दीनता, उत्साहः, स्नेहः, निवेदनम्, कृतज्ञता, भर्त्सना, आशङ्का।
          
          उत्तरः
          
          (क) उत्साहः
          
          (ख) आशङ्का
          
          (ग) भर्त्सना
          
          (घ) निवेदनम्
          
          (ङ) स्नेहः
          
          (च) आशीर्वादः
          
          (छ) कृतज्ञता
          
          (ज) दीनता।
         
          8. अधोलिखितं कथनं कः/का, कं/कां प्रति कथयति? (निम्नलिखित कथनों को कौन किसे कहता है?) –
          
 
          उत्तरः
          
          (क) दिलीपः-सिंहम्
          
          (ख) सिंहः-दिलीपम्
          
          (ग) दिलीप:-नन्दिनीम्
          
          (घ) नन्दिनी-दिलीपम्
          
          (ङ) दिलीपः-आत्मगतम्।
         
          9. अधः दत्तासु सूक्तिषु ताः चिनुत याः पाठे न सन्ति (नीचे दी गईं जो सूक्तियाँ पाठ में नहीं हैं उन्हें चुनिए)
          
          (क) अल्पस्य हेतोः बहु हातुम् इच्छसि।
          
          (ख) यशः शरीरे भव मे दयालुः।
          
          (ग) उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम्।
          
          (घ) क्षतात्किल त्रायत इत्युदनः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः।
          
          (ङ) एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वम्।
          
          (च) वायुवेगः पादपानाम् उन्मूलने समर्थः भवति न तु पर्वतानाम्।
          
          (छ) प्रजाः प्रजानाथ पितेव पासि।
          
          (ज) क्षमा-शस्त्रं करे यस्य दुर्जनः किं करिष्यति?
          
          उत्तरः
          
          (ग), (घ), (छ), (ज) एताः सूक्तयः पाठे न सन्ति।
         
          ग. पाठ-विकासः
          
          कालिदासस्य रचना –
         
          (क) महाकाव्यद्वयम् –
          
          (i) कुमारसम्भवम्।
          
          (ii) रघुवंशम्।
         
          (ख) गीतिकाव्यद्वयम् –
          
          (i) ऋतुसंहारः।
          
          (ii) मेघदूतम्।
         
          (ग) नाटकत्रयम् –
          
          (i) मालविकाग्निमित्रम्।
          
          (ii) विक्रमोर्वशीयम्।
          
          (iii) अभिज्ञानशाकुन्तलम्।
         
          वैशिष्ट्यम् –
          
          (क) कालिदासस्य सम्पूर्ण साहित्यं प्रकृतिप्रेमपरिपूर्णम्, प्रेरणाप्रदं, शिक्षाप्रदं चास्ति।
          
          (ख) अभिज्ञानशाकुन्तलम् तु विश्वप्रसिद्धम् अस्ति। नाटकेषु काव्यं रम्यम् तत्र रम्या शकुन्तला।
          
          (ग) महाकवेः सम्पूर्णसाहित्यस्य आधारः आध्यात्मिकता अस्ति। सर्वत्र प्रकृतिवर्णनम् अत्यद्भुतं मनोहारि च।
          
          (घ) महाकवेः उपमा अलंकारः पाठकस्य मनः मोहयति। यथा-‘उपमा कालिदासस्य।’
          
          (ङ) भ्रातृत्वम् अत्र आदर्शः, सेवा च परमलक्ष्यम्।
         
घ. पठितांश-अवबोधनम्
          1. निम्न गद्यांशं पठित्वा तदाधारितानां प्रश्नानाम् उत्तराणि लिखत –
          
          स्थानम्-घनं वनम्
          
          समयः- मध्याह्नवेला
          
          (नन्दिनीम् अनुगच्छन् दिलीपः प्रविशति।)
         
          दिलीपः – (आत्मगतम्) अहो प्रकृत्याः सौन्दर्यं विलक्षणम्। एषा कलकलनिनादिनी भागीरथी द्रुतवेगेन प्रवहति पुरतः हिमाच्छन्नः गिरिराजः। कुसुमैः समृद्धाः तरवः पक्षिणां कलरवैः चित्तं हरन्ति।
          
          (नेपथ्ये सिंहगर्जना भवति।)
          
          अये, सिंहः प्राप्तः। (आशङ्कां नाटयन्)
          
          अत्र नन्दिनी न दृश्यते। कुत्र नु गता भवेत्? पश्यामि एनाम्। ( त्वरितं परिक्रम्य) हा धिक्, सिंहेन आक्रान्ता नन्दिनी क्रन्दति। रक्षामि एनाम्। (धनुः उद्यम्य) (आकाशभाषितम्) तिष्ठ रे तिष्ठ दुरात्मन्! आर्तानां परित्राणम् इक्ष्वाकूणां कुलव्रतम्। त्वां दण्डयितुम् एषः दिलीपः समुपस्थितः। किं वदसि? मया रुचिकर भोजनं प्राप्तम् इति। नैव, नैव। त्वां हत्वा गां रक्षामि। (निषङ्गात् शरं निष्कासयितुम् इच्छति।) (आत्मगतम्) अये! किमिदं जातम्? मम हस्तः शरे सक्तः जातः। हा! बलं प्रयुज्य अपि हस्तं मोचयितुं न प्रभवामि। अधुना किं करोमि? कथम् एनां रक्षामि?
         
          I. एकपदेन उत्तरत –
          
          (i) कस्याः सौन्दर्यं विलक्षणम् वर्तते?
          
          (ii) वने का क्रन्दति?
          
          (iii) आर्तानां परित्राणं केषां कुलव्रतम् अस्ति?
          
          (iv) दिलीपस्य हस्तः कुत्र सक्तः जातः?
          
          उत्तरः
          
          (i) प्रकृत्याः
          
          (ii) नन्दिनी
          
          (iii) इक्ष्वाकूणाम्
          
          (iv) शरे
         
          II. पूर्णवाक्येन उत्तरत –
          
          तत्र का द्रुतवेगेन प्रवहति?
          
          उत्तरः
          
          तत्र कलकलनिनादिनी भागीरथी द्रुतवेगेन प्रवहति।
         
          III. निर्देशानुसार उत्तरत –
          
          (i) गद्यांशे ‘कलकलनिनादिनी’ विशेषणस्य विशेष्यपदं किम्?
          
          (क) गंगा
          
          (ख) भागिरथी
          
          (ग) भागीरथी
          
          (घ) तमसा
          
          उत्तरः
          
          (ग) भागीरथी
         
          (ii) गद्यांशे ‘समुपस्थितः’ क्रियापदस्य कर्तृपदं किम्?
          
          (क) त्वाम्
          
          (ख) दिलीपः
          
          (ग) एषः
          
          (घ) दण्डयितुम्
          
          उत्तरः
          
          (ख) दिलीपः
         
          (iii) अनुच्छेदे ‘करः’ इति पदस्य कः पर्यायः आगतः?
          
          (क) सक्तः
          
          (ख) जातः
          
          (ग) मम
          
          (घ) हस्तः
          
          उत्तरः
          
          (घ) हस्तः
         
          (iv) ‘त्वां हत्वा गां रक्षामि।’ अत्र ‘त्वाम्’ पदं कस्मै आगतम्?
          
          (क) सिंहाय
          
          (ख) जनाय
          
          (ग) जीवाय
          
          (घ) पशवे
          
          उत्तरः
          
          (क) सिंहाय
         
          2. निम्नलिखितं श्लोकं पठित्वा तदाधारितान् प्रश्नान् उत्तरत –
          
          (क) एकातपत्रं जगतः प्रभुत्वम्
          
          नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च।
          
          अल्पस्य हेतोः बहु हातुमिच्छन्
          
          विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्॥
         
          I. एकपदेन उत्तरत –
          
          (i) सिंहम् नृपः कीदृशो प्रतिभाति?
          
          (ii) नृपस्य वयः कीदृशम् आसीत्?
          
          (iii) नृपः कस्य हेतोः बहु हातुम् इच्छति?
          
          (iv) नृपस्य वपुः कीदृशम् आसीत्?
          
          उत्तरः
          
          (i) विचारमूढः
          
          (ii) नवम्
          
          (ii) अल्पस्य
          
          (iv) कान्तम्
         
          II. पूर्णवाक्येन उत्तरत –
          
          नृपस्य समीपे कीदृशं प्रभुत्वम् अस्ति?
          
          उत्तरः
          
          नृपस्य समीपे एकातपत्रं जगतः प्रभुत्त्वम् अस्ति।
         
          III. यथानिर्देशम् उत्तरत –
          
          (i) ‘विचारमूढ़ में प्रतिभासि त्वम्’। अत्र ‘मे’ पदं कस्मै प्रयुक्तम्?
          
          (क) नृपाय
          
          (ख) सिंहाय
          
          (ग) गवे
          
          (घ) राजे
          
          उत्तरः
          
          (ख) सिंहाय
         
          (ii) श्लोके ‘त्वम्’ इति कर्तृपदस्य क्रियापदं किम्?
          
          (क) मे
          
          (ख) हातुम्
          
          (ग) इच्छन्
          
          (घ) प्रतिभासि
          
          उत्तरः
          
          (घ) प्रतिभासि
         
          (iii) श्लोके ‘शरीरम्’ इति पदस्य कः पर्यायः लिखितः?
          
          (क) वपुः
          
          (ख) वयः
          
          (ग) वपुश्च
          
          (घ) नवम्
          
          उत्तरः
          
          (क) वपुः
         
          (iv) ‘कान्तमिदं वपुश्च’ अत्र ‘कान्तम्’ इति विशेषणस्य विशेष्यः कः आगतः?
          
          (क) वपुश्च
          
          (ख) इदम्
          
          (ग) वपुः
          
          (घ) च
          
          उत्तरः
          
          (ग) वपुः
         
          (ख) किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं,
          
          यशः शरीरे भव मे दयालुः।
          
          एकान्तविध्वंसिषु मद्विधानां,
          
          पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु॥
         
          I. एकपदेन उत्तरत –
          
          (i) नृपः कीदृशेषु पिण्डेषु अनास्थां धारयति?
          
          (ii) शरीरं कीदृशं भवति?
          
          (iii) नृपः स्वात्मानं कीदृशं कथयति?
          
          (iv) पिण्डम् केभ्यः निर्मितम् वर्तते?
          
          उत्तरः
          
          (i) भौतिकेषु
          
          (ii) एकान्तविध्वंसिः
          
          (iii) अहिंस्यः
          
          (iv) भौतिकपदार्थेभ्यः
         
          II. पूर्णवाक्येन उत्तरत –
          
          नृपः दिलीपः सिंहम् कस्मिन् दयालुः भवितुं प्रार्थयति?
          
          उत्तरः
          
          नृपः दिलीपः सिंहम् स्व यशः शरीरे दयालुः भवितुं प्रार्थयति।
         
          III. निर्देशानुसारम् उत्तरत –
          
          (i) ‘पिण्डेषु भौतिकेषु’ अत्र विशेषणं किम्?
          
          (क) भौतिकेषु
          
          (ख) भौतिकम्
          
          (ग) पिण्डम्
          
          (घ) पिण्डेषु
          
          उत्तरः
          
          (क) भौतिकेषु
         
          (ii) श्लोकस्य ‘भव’ इति क्रियायाः कर्तृपदं किम्?
          
          (क) यूयम्
          
          (ख) सः
          
          (ग) त्वम्
          
          (घ) अहम्
          
          उत्तरः
          
          (ग) त्वम्
         
          (iii) ‘शरीरेषु’ इति पदस्य कः पर्यायः अत्र श्लोके आगतः?
          
          (क) भौतिकेषु
          
          (ख) देहेषु
          
          (ग) एकान्त विध्वंसिषु
          
          (घ) पिण्डेषु
          
          उत्तरः
          
          (घ) पिण्डेषु
         
          (iv) ‘निर्दयः इत्यस्य पदस्य कः विपर्ययः अत्र प्रयुक्तः?
          
          (क) यशः
          
          (ख) दयालुः
          
          (ग) चेन्मतः
          
          (घ) मतः
          
          उत्तरः
          
          (ख) दयालुः
         
          3. अधोलिखितं नाटयांशं पठित्वा तदाधारितान् प्रश्ननि उत्तरत् –
          
          (क) सिंहः – (मनुष्यवाचा) हा हा हा, मां हन्तुम् इच्छसि? पश्य, तव शक्तिः मया प्रतिरुद्धा। वायुवेगः पादपान् उन्मूलयितुं शक्नोति, न तु पर्वतान्। जानासि किं, कोऽहम्?
          
          दिलीपः – कथं न जानामि। त्वं दुष्टः आततायी च।
          
          सिंहः – राजन्! श्रूयतां तावत्। भगवता शङ्करेण एतस्य वनस्य रक्षार्थ नियुक्तः किङ्करोऽस्मि। मम नाम कुम्भोदरः। अद्य सौभाग्यात् मम व्रतस्य पारणायै एषा धेनूः स्वयम् उपस्थिता।
          
          दिलीपः – हे मृगराज! भगवान् शिवः ममापि आराधनीयः देवः; किन्तु भवान् एतां हन्तुं न अर्हति।
          
          एषा मम गुरोः वसिष्ठस्य होमधेनुः। संसारे मनसाऽपि कश्चित् अस्याः अनिष्टं कर्तुं न शक्नोति। भवता तु रुद्रौजसा अस्यां प्रहारः कृतः।
          
          सिंहः – किं तेन। यदि अस्याः विनाशेन गुरुः क्रुद्धः भवति, तर्हि अन्याः कोटिशः गाः प्रदाय तं तोषयितुम् अर्हति भवान्।
          
          दिलीपः – नैतत् शक्यम्! त्वं मम शरीरेण क्षुधां शमय गां च परिमुञ्च।
         
          I. एकपदेन उत्तरत –
          
          (i) सिंहस्य किं नाम आसीत्?
          
          (ii) सिंहः केन रक्षार्थं नियुक्तः?
          
          (iii) नन्दिनी कस्य होमधेनुः आसीत्?
          
          (iv) सिंहेन केन बलेन नन्दिन्यां प्रहारः कृतः?
          
          उत्तरः
          
          (i) कुम्भोदरः
          
          (ii) शङ्करेण
          
          (iii) वसिष्ठस्य
          
          (iv) रुद्रौजसा।
         
          II. पूर्णवाक्येन उत्तरत –
          
          सिंहस्य किं सौभाग्यम् आसीत्?
          
          उत्तरः
          
          सिंहस्य सौभाग्यम् आसीत् यत् तस्य व्रतस्य पारणायै नन्दिनी तत्र स्वयम् उपस्थिता।
         
          III. निर्देशानुसारम् उत्तरत –
          
          (i) ‘भगवान् शिवः’ अनयोः पदयोः विशेषणपदं किम् अस्ति?
          
          (क) शिवः
          
          (ख) भगवान्
          
          (ग) भगवत्
          
          (घ) शिव
          
          उत्तरः
          
          (ख) भगवान्
         
          (ii) ‘अस्याः विनाशेन’ अत्र ‘अस्याः’ पदं कस्यै प्रयुक्तम्?
          
          (क) देव्यै
          
          (ख) नान्द्यै
          
          (ग) धेन्वै
          
          (घ) शिवायै
          
          उत्तरः
          
          (ग) धेन्वै
         
          (iii) त्वं मम शरीरेण क्षुधां शमय गां च परिमुञ्च। अत्र क्रियापदं किम्?
          
          (क) क्षुधां
          
          (ख) मम
          
          (ग) गाम्
          
          (घ) परिमुञ्च
          
          उत्तरः
          
          (घ) परिमुञ्च
         
          (iv) संवादे ‘धेनू:’ पदस्य कः पर्यायः प्रयुक्तः? ।
          
          (क) गाः
          
          (ख) गाम्
          
          (ग) गाव:
          
          (घ) गौः
          
          उत्तरः
          
          (क) गाः।
         
          (ख) सिंहः – तथास्तु! अद्याहं तव देहेन क्षुधां शमयामि, गां च मुञ्चामि।
          
          दिलीपः – अनुगृहीतः अस्मि! आत्मकृत्यं सम्पादय।
          
          (नृपः दिलीपः भूमौ अधोमुखः तिष्ठति, सहसा आकाशात् तस्मिन् पुष्पवृष्टिः भवति।)
         
          I. एकपदेन उत्तरत –
          
          (i) सिंहः कां मोचयति?
          
          (ii) आकाशात् का भवति?
          
          उत्तरः
          
          (i) गाम्
          
          (ii) पुष्पवृष्टिः
         
          II. पूर्णवाक्येन उत्तरत –
          
          नृपः दिलीपः कीदृशः तिष्ठति?
          
          उत्तरः
          
          नृपः दिलीपः भूमौ अधोमुखः तिष्ठति।
         
          III. निर्देशानुसार उत्तरत –
          
          (i) संवादे ‘बुभुक्षाम्’ इति पदस्य कः पर्यायः आगतः?
          
          (क) तृषाम्
          
          (ख) तृप्तिम्
          
          (ग) क्षुधाम्
          
          (घ) गाम्
          
          उत्तरः
          
          (ग) क्षुधाम्
         
          (ii) ‘शमयामि’ इति क्रियायाः संवादे कर्तृपदं किम्? ।
          
          (क) अहम्
          
          (ख) अद्य
          
          (ग) अद्याहम्
          
          (घ) क्षुधाम्
          
          उत्तरः
          
          (क) अहम्
         
          (iii) ‘ऊर्ध्वमुखः’ इति पदस्य संवादे कः विपर्ययः दत्तः?
          
          (क) अधः
          
          (ख) अधोमुखः
          
          (ग) सहसा
          
          (घ) नतमुखः
          
          उत्तरः
          
          (ख) अधोमुखः
         
          (iv) संवादे ‘दिलीपः’ इति विशेष्यस्य विशेषणं किम्?
          
          (क) अधोमुखः
          
          (ख) पुष्पवृष्टिः
          
          (ग) सहसा
          
          (घ) नृपः
          
          उत्तरः
          
          (घ) नृपः
         
          (ग) नन्दिनी – वत्स! उत्तिष्ठ, प्रसन्नाऽस्मि ते।
          
          सिंहः – (उत्थाय) मातः! क्वासौ सिंहः? सः न दृश्यते।
          
          नन्दिनी – (सस्नेहम्) पुत्र! सः तु मायासिंहः आसीत्, तव भक्तिं परीक्षितुं मयैव प्रकटीकृतः। नूनं तव भक्तिः अपूर्वा। त्वं सफलकामः भूत्वा चक्रवर्तिनं पुत्रम् आजुहि।
          
          दिलीपः – अनुगृहीतः अस्मि! भवत्याः आशीर्वचनेन लब्धं मया सर्वम्।
          
          (उभौ आश्रमं प्रति परिक्रामतः)
         
          I. एकपदेन उत्तरत –
          
          (i) नृपस्य भक्तिः कीदृशी आसीत्?
          
          (ii) सः सिंहः कीदृशः आसीत्?
          
          (iii) नृपः दिलीपः केन सर्वं लब्धवान्?
          
          (iv) नृपः नन्दिनीं केन पदेन सम्बोधयति?
          
          उत्तरः
          
          (i) अपूर्वा
          
          (ii) मायासिंहः
          
          (iii) आशीर्वचनेन
          
          (iv) ‘पुत्र’ पदेन
         
          II. पूर्णवाक्येन उत्तरत –
          
          नन्दिनी नृपं कम् आशीर्वादं यच्छति?
          
          उत्तरः
          
          ‘त्वं सफलकामः भूत्वा चक्रवर्तिनं पुत्रम् आप्नुहि।’ नन्दिनी नृपम् इमम् आशीर्वादं यच्छति।
         
          III. निर्देशानुसार उत्तरत –
          
          (i) ‘प्रसन्नाऽस्मि ते’। अत्र ‘ते’ पदं कस्मै प्रयुक्तम्?
          
          (क) नृपाय
          
          (ख) सिंहाय
          
          (ग) गवे
          
          (घ) पशवे
          
          उत्तरः
          
          (क) नृपाय
         
          (ii) संवादे ‘आप्नुहि’ इत्यस्याः क्रियायाः कर्तृपदं किम्?
          
          (क) त्वम्
          
          (ख) पुत्रम्
          
          (ग) चक्रवर्तिनम्
          
          (घ) सफलकामः
          
          उत्तरः
          
          (क) त्वम्
         
          (iii) ‘नूनं तव भक्तिः अपूर्वा।’ अत्र विशेषणपदं किम्?
          
          (क) तव
          
          (ख) भक्तिः
          
          (ग) नूनम्
          
          (घ) अपूर्वा
          
          उत्तरः
          
          (घ) अपूर्वा
         
          (iv) ‘सुतम्’ इत्यस्य पदस्य कः पर्यायः संवादे अत्र लिखितः?
          
          (क) जनम्
          
          (ख) नृपम्
          
          (ग) पुत्रम्
          
          (घ) कलत्रम्
          
          उत्तरः
          
          (ग) पुत्रम्
         
          4. I. निम्न वाक्यान् पठित्वा इमं ‘कः कम् च कथयति’ इति लिखत –
          
          1. अत्र नन्दिनी न दृश्यते। कुत्र नु गता भवेत्?
          
          2. कुसमैः समृद्धाः तरवः पक्षिणां कलरवैः चित्तं हरन्ति।
          
          3. जानासि किं, कोऽहम्?
          
          4. भगवता शङ्करेण एतस्य वनस्य रक्षार्थ नियुक्तः किङ्करोऽस्मि।
          
          5. भवता तु रुद्रौजसा अस्यां प्रहारः कृतः।
          
          6. त्वं मम शरीरेण क्षुधां शमय गां च परिमुञ्च।
          
          7. विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्। 8. अनुगृहीतः अस्मि! आत्मकृत्यं सम्पादय।
          
          9. नूनम् तव भक्तिः अपूर्वा।
          
          10. भवत्याः आशीर्वादेन लब्धं मया सर्वम्।
          
          उत्तरः
          
          कः कथयति – कम् कथयति
          
          1. नृपः दिलीपः – आत्मानम्
          
          2. नृपः दिलीपः – आत्मानम्
          
          3. सिंहः – नृपं दिलीपम्
          
          4. सिंहः – नृपं दिलीपम्
          
          5. नृपः दिलीपः – सिंहम्
          
          6. नृपः दिलीपः – सिंहम्
          
          7. सिंहः – नृपं दिलीपम्
          
          8. नृपः दिलीपः – सिंहम्
          
          9. नन्दिनी – नृपं दिलीपम्
          
          10. नृपः दिलीपः – नन्दिनीम्
         
          II. निम्नवाक्यं पठित्वा तस्य सन्दर्भ-ग्रन्थः लेखकस्य च नाम लिखत
          
          (i) यशोधनानां हि यशो गरीयः।
          
          (ii) विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्।
          
          (iii) किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं, यशः शरीरे भव मे दयालुः।
          
          उत्तरः
          
          (i) रघुवंशम्-महाकविः कालिदासः
          
          (ii) रघुवंशम्-महाकविः कालिदासः
          
          (iii) रघुवंशम्-महाकविः कालिदासः
         
          5. निम्न श्लोकं श्लोकांशान् च पठित्वा तेषां भावं रिक्त-स्थान-पूर्ति-माध्यमेन पूर्ण कुरुत (सहायतायै मञ्जूषा अपि दत्ता) –
          
          I. एकातपत्र जगतः प्रभुत्वम्, नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च।
          
          अल्पस्य हेतोः बहु हातुमिच्छन्, विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्॥
          
          अस्य भावोऽस्ति-यत् हे राजन्! कदापि जनः लघु वस्तुने (i) …………………. वस्तूनाम् त्यागं न कुर्यात्। चक्रवर्ती राज्यं (ii) …………………. संसारस्य स्वामित्वं (iii) …………………. इदं सुन्दरं शरीरं च, एतानि सर्वाणि प्रिय वस्तूनि (iv) …………………. हेतोः त्यजन् माम् तु भवाम् मूढः एव प्रतीयते।
          
          मञ्जूषा – अल्पस्य, महताम्, नवायुः, एकच्छत्रं
          
          उत्तरः
          
          (i) महताम्
          
          (ii) एकच्छत्रं
          
          (iii) नवायुः
          
          (iv) अल्पस्य
         
          II. किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं, यशः शरीरे भव मे दयालुः।
          
          एकान्तविध्वंसिषु मद्विधानां, पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु॥
          
          अस्य आशयोऽस्ति-चेत् अहं तव (i) …………………. अहिंस्यः अतः त्वं (ii) …………………. यशः शरीरं प्रति दयालुः भव। यतः (iii) ……………… निर्मितं विनाशवन्तं शरीरं प्रति (iv) …………… इव जनानाम् निश्चितरूपेण आस्था न भवति।
          
          मञ्जूषा – अस्माकम्, मम, किमपि, पञ्चभूतैः
          
          उत्तरः
          
          (i) किमपि
          
          (ii) मम
          
          (iii) पञ्चभूतैः
          
          (iv) अस्माकम्
         
          6. निम्न श्लोकं पठित्वा समुचितैः पदैः तस्य अन्वयपूर्ति कुरुत –
          
          I. एकात पत्रं जगतः प्रभुत्वम्
          
          नवं वयः कान्तमिदं वपुश्च।
          
          अल्पस्य हेतोः बहु हातुमिच्छन्
          
          विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्॥
          
          अन्वयः –
          
          एकात पत्रं (i) ………………….प्रभुत्वम् नवं वयः इदं च (ii) ………………….वपुः। अल्पस्य (iii) …………………. बहु हातुम् इच्छन् त्वम् मे (iv) …………………. प्रतिभासि।।
          
          उत्तरः
          
          (i) जगतः
          
          (ii) कान्तम्
          
          (iii) हेताः
          
          (iv) विचारमूढः।
         
          II. किमप्यहिंस्यस्तव चेन्मतोऽहं,
          
          यशः शरीरे भव मे दयालुः।
          
          एकान्तविध्वंसिषु मद्विधानां
          
          पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु॥
          
          अन्वयः –
          
          अहं चेत् तव किमपि (i) ……………… मतः मे (त्वं) (ii) …………….. दयालुः भव। एकान्त (iii) ……………. भौतिकेषु पिण्डेषु खलु (iv) …………. अनास्थाः (भवति)।
          
          उत्तरः
          
          (i) अहिंस्यः
          
          (ii) यशः शरीरे
          
          (iii) विध्वंसिषु
          
          (iv) मद्विधानाम्।
         
          7. निम्न वाक्यान् पठित्वा कथाक्रमानुसारं तान् क्रमबद्धान् कुरुत –
          
          (क) (i) सः मायासिंहः धेन्वा एव प्रकटीकृतः आसीत्।
          
          (ii) दिलीपः धनुः उत्थाय बाणेन सिंहम् हन्तुम् इच्छति।
          
          (iii) राजा सिंहगर्जनां शृणोति।
          
          (iv) नृपः सिंहेन आक्रान्तां धेनुम् अवलोकयति।
          
          (v) दिलीपस्य हस्तः शरे सक्तः भवति।
          
          (vi) दिलीपः वने प्रकृत्याः सौन्दर्यं पश्यति।
          
          (vii) विवशतां गतः राजा स्वशरीरं दत्वा गां रक्षितुम् इच्छति।
          
          (viii) दिलीपस्य भक्तिं दृष्ट्वा नन्दिनी प्रसीदति तस्मै च पुत्र प्राप्त्यै आर्शीवादं यच्छति।
          
          उत्तरः
          
          (vi), (iii), (iv), (ii), (v), (vi), (vii), (viii)
         
          (ख) (i) भगवता शंकरेण एतस्य वनस्य रक्षार्थ नियुक्तः किङ्करः अस्मि।
          
          (ii) नैव नैव। त्वां हत्वा गां रक्षामि।
          
          (iii) त्वं मम शरीरेण क्षुधां शमय गां च परिमुञ्च।
          
          (iv) एषा कलकलनिनदिनी भागीरथी द्रुतवेगेन प्रवहति।
          
          (v) अल्पस्य हेतोः बहु हातुमिच्छन् विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्।
          
          (vi) दिलीपः भूमौ अधोमुखः तिष्ठति, सहसा आकाशात् तस्मिन् पुष्पवृष्टिः भवति।
          
          (vii) त्वं सफलकामः भूत्वा चक्रवर्तिनं पुत्रम् आप्नुहि।
          
          (viii) हा धिक्, सिंहेन आक्रान्ता नन्दिनी क्रन्दति। रक्षामि एनाम्।
          
          उत्तरः
          
          (iv),(viii), (ii), (i), (iii), (v), (vi), (vii)
         
          (ग) (i) अनुग्रहीतः अस्मि। भवत्याः आशीर्वादेन मया सर्वं प्राप्तम्।
          
          (ii) तथास्तु। अद्याहं तव देहेन क्षुधां शमयामि, गां च मुञ्चामि।
          
          (iii) किमेवम्? एकस्याः धेनोः कृते प्राणान् अपि दातुम् उद्यतोऽसि।
          
          (iv) एषा मम गुरोः वसिष्ठस्य होमधेनुः। संसारे मनसाऽपि कश्चित् अस्याः अनिष्टं कर्तुं न शक्नोति
          
          (v) हा हा हा, मां हन्तुम् इच्छसि?
          
          (vi) मम हस्तः शरे सक्तः जातः। हा! बलं प्रयुज्य अपि हस्तं मोचयितुं न प्रभवामि।
          
          (vii) अहं भगवतः शंकरस्य सेवकः कुम्भोदरः, मम सौभाग्यात् एव एषा धेनुः मम भोजनाय अत्र आगता।
          
          (viii) अत्र नन्दिनी नास्ति दृश्यते अपि न, हा धिक् इयं तु सिंहेन आक्रान्ता दृश्यते।
          
          उत्तरः
          
          (viii),(vi), (v), (vii), (iv), (iii), (ii), (i)
         
          8. निम्न रेखाङ्कितानां पदानां विकल्पेभ्यः समुचितम् अर्थं चीयताम् –
          
          (i) त्वं सफल कामाः भूत्वा चक्रवर्तिनं पुत्रम्
          
           आप्नुहि
          
          ।
          
          (क) कुरु
          
          (ख) प्रापय
          
          (ग) अनुगच्छ
          
          (घ) प्राप्नुहि
          
          उत्तरः
          
          (घ) प्राप्नुहि
         
          (ii) नृपः दिलीपः
          
           भूमौ
          
          अधोमुखः तिष्ठति।
          
          (क) धरायाम्
          
          (ख) आकाशे
          
          (ग) जले
          
          (घ) पाताले
          
          उत्तरः
          
          (क) धारायाम्
         
          (iii) नवं
          
           वयः
          
          कान्तमिदं वपुश्च।
          
          (क) आरोग्यम्
          
          (ख) शरीरम्
          
          (ग) आयुः
          
          (घ) चित्तम्
          
          उत्तरः
          
          (ग) आयुः
         
          (iv)
          
           एकातपत्रं
          
          जगतः प्रभुत्वम्।
          
          (क) राज्यम्
          
          (ख) एकं पत्रं
          
          (ग) चक्रवर्ती राज्यं
          
          (घ) आतपम्
          
          उत्तरः
          
          (ग) चक्रवर्ती राज्य
         
          (v) त्वं मम शरीरेण क्षुधां शमय
          
           गां
          
          च परिमुञ्च।
          
          (क) धराम्
          
          (ख) छायाम्
          
          (ग) कायाम्
          
          (घ) धेनुम्
          
          उत्तरः
          
          (घ) धेनुम्
         
          (vi) कश्चित् अस्याः
          
           अनिष्टं
          
          कर्तुं न शक्नोति।
          
          (क) दु:खम्
          
          (ख) अहितम्
          
          (ग) कष्टम्
          
          (घ) पीडाम्
          
          उत्तरः
          
          (ख) अहितम्
         
          (vii) मम हस्तः शरे
          
           सक्तः
          
          जातः।
          
          (क) रुद्धः
          
          (ख) प्रतिरुद्धः
          
          (ग) विरुद्धः
          
          (घ) संरुद्धः
          
          उत्तरः
          
          (ख) प्रतिरुद्धः
         
          (viii) कुसुमैः समृद्धाः
          
           तरवः
          
          पक्षिणां कलरवैः चित्तं हरन्ति।
          
          (क) पादपाः
          
          (ख) पुष्पाणि
          
          (ग) वृक्षाः
          
          (घ) श्रृंखलाः
          
          उत्तरः
          
          (ग) वृक्षाः
         
          (ix) सिंहेन
          
           आक्रान्ता
          
          नन्दिनी क्रन्दति।
          
          (क) पीड़िता
          
          (ख) हर्षिता
          
          (ग) दुःखिता
          
          (घ) गृहीता
          
          उत्तरः
          
          (घ) गृहीता
         
          (x) एषा कलकलनिनादिनी
          
           भागीरथी
          
          द्रुतवेगेन प्रवहति।
          
          (क) सूर्यपुत्री
          
          (ख) गङ्गा
          
          (ग) हिमानी
          
          (घ) नर्मदा
          
          उत्तरः
          
          (ख) गङ्गा
         
 
 
 
 
