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CBSE Class 11 Hindi श्रवण एवं वाच

October 9, 2019 by LearnCBSE Online

CBSE Class 11 Hindi श्रवण एवं वाचन

भाषा का मौखिक प्रयोग ही भाषा का मूल रूप है। इसलिए बोलचाल को ही भाषा का वास्तविक रूप माना जाता है। मानव जीवन में लिखित भाषा की अपेक्षा मौखिक भाषा ही अधिक महत्त्वपूर्ण होती है, क्योंकि हम अपने दैनिक जीवन के अधिकांश कार्य मौखिक भाषा द्वारा ही संपन्न करते हैं। हास-परिहास, वार्तालाप, विचार-विमर्श, भाषण, प्रवचन आदि कार्यों में मौखिक भाषा का उपयोग स्वयंसिद्ध है। सार्वजनिक जीवन में मौखिक अभिव्यक्ति का विशेष महत्त्व है। जो वक्ता मौखिक अभिव्यक्ति में अधिक कुशल होता है, वह श्रोताओं को अधिक प्रभावित करता है तथा अपना लक्ष्य सिद्ध कर लेता है।

सामाजिक संवाद में कुशल बनने के लिए प्रयोग और अभ्यास भी अनिवार्य है। बिना अभ्यास के आत्म-विश्वास डगमगाने लगता है। यह आवश्यक नहीं है कि अभ्यास के लिए स्थिति सामने लाई जाए क्योंकि शादी, मृत्यु आदि का अवसर कक्षा में नहीं लाया जा सकता। अतः छात्रों को अध्यापक की सहायता से काल्पनिक स्थिति बनाकर अभ्यास करना चाहिए।

(क) मानक उच्चारण के साथ शुद्ध भाषा का प्रयोग।
(ख) व्यावहारिक भाषा का प्रयोग।
(ग) विनीत और स्पष्ट भाषा का प्रयोग।
(घ) विषयानुरूप प्रभावपूर्ण भाषा का प्रयोग।

मौखिक अभिव्यक्ति के अनेक रूप हैं; जैसे –

  1. कविता पाठ
  2. कहानी कहना
  3. भाषण
  4. समाचार वाचन
  5. साक्षात्कार लेना व देना
  6. वर्णन करना
  7. वाद-विवाद
  8. परिचर्चा
  9. उद्घोषणा
  10. बधाई देना
  11. धन्यवाद
  12. संवेदना प्रकट करना
  13. आस-पड़ोस में संपर्क
  14. अतिथि का स्वागत।

कुछ महत्त्वपूर्ण रूपों पर यहाँ प्रकाश डाला जा रहा है-

(1) कविता सुनाना

कविता सुनाना भी अपने-आप में एक कला है। यह कला कुछ लोगों में जन्म से पाई जाती है तो कुछ इसे अभ्यास द्वारा सीख सकते हैं। कवि सम्मेलनों में जाने तथा कवियों के सान्निध्य से कविता पाठ सुनकर अभ्यास किया जाए तो सीखने का कार्य सरल हो जाता है। कविता पाठ में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-

  1. सर्वप्रथम ऐसी कविता का चयन करें जो अपनी रुचि के अनुसार हो, जिसे आप अपने हृदय से पसंद करते हों, क्योंकि ऐसी कविता में ही आप उन भावों को भर सकते हैं, जो आपके दिल से निकलते हैं।
  2. कविता को पूर्णतः कठस्थ कर लें। कंठस्थ कविता से ही लय बनती है।
  3. उस कविता का बार-बार अभ्यास करें।
  4. कंठस्थ कविता को नज़दीकी लोगों को सुनायें।
  5. एकांत कमरे में शीशे के सामने खड़े होकर अपने हाव-भाव को कविता की प्रवृत्ति के अनुसार बनायें।
  6. जो शब्द या वाक्य आपके प्रवाह में बाधक हों, उन्हें बदल कर उनके स्थान पर पर्यायवाची रख दें।
  7. शब्द परिवर्तन से कविता के अर्थ में परिवर्तन नहीं आना चाहिए।
  8. उच्चारण पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
  9. कविता सुनाते समय मुक्त कंठ से कविता का उच्चारण करें।
  10. श्रोता की रुचि व आराम का विशेष ध्यान रखें।
  11. श्रोताओं के हाव-भाव पढ़ने का प्रयत्न करें।
  12. भावों के अनुसार स्वरों में उतार-चढ़ाव होना भी आवश्यक है। हास्य, व्यंग्य व करुणा के भावों के अनुसार वाणी का उतार चढ़ाव अधिक प्रभावशाली बन जाता है।
  13. कविता रुक-रुक कर सुनाई जानी चाहिए, ताकि श्रोतागण उसका पूरा आनंद ले सकें।
  14. श्रोतागण के आनंद को उनके द्वारा दी गई दाद/तालियों से समझा जा सकता है। ऐसे अवसरों पर कविता की उस पंक्ति को दोबारा दोहराया जाना चाहिए।
  15. जिन पंक्तियों पर आप श्रोता का ध्यान आकर्षित करना चाहते हों, उन पंक्तियों को दोहराना चाहिए।
  16. कविता को गाकर भी सुनाया जा सकता है।
  17. कविता का चयन अवसरानुकूल होना चाहिए।
  18. कविता की भावपूर्ण हृदय से सुनाकर श्रोतागण को भाव-विभोर करना ही श्रेष्ठ कविता का वाचन होता है।
  19. अवसरानुकूल कविता की प्रस्तुति से श्रोताओं का भाव-विभोर हो जाना निश्चित है, क्योंकि हृदय से निकली आवाज मन को अवश्य बाँधती है।

अभ्यास प्रश्न

1. निम्नलिखित कविताओं का कक्षा में प्रभावशाली ढंग से वाचन कीजिए-

(1) झाँसी की रानी की समाधि पर

इस समाधि में छिपी हुई है
एक राख की ढेरी।
जलकर जिसने स्वतंत्रता की
दिव्य आरती फेरी॥

यह समाधि, यह लघु समाधि है
झाँसी की रानी की।
अंतिम लीलास्थली यही है
लक्ष्मी मर्दानी की॥

यहीं कहीं पर बिखर गई वह
भग्न विजय-माला-सी।
उसके फूल यहाँ संचित हैं
है यह स्मृति-शाला-सी॥

सहे वार पर वार अंत तक
लड़ी वीर बाला-सी।
आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर
चमक उठी ज्वाला-सी॥

बढ़ जाता है मान वीर का
रण में बलि होने से।
मूल्यवती होती सोने की
भस्म यथा सोने से॥

रानी से भी अधिक हमें अब
यह समाधि है प्यारी।
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की
आशा की चिनगारी॥

इससे भी सुंदर समाधियाँ
हम जग में हैं पाते।
उनकी गाथा पर निशीथ में
क्षुद्र जंतु ही गाते॥

पर कवियों की अमर गिरा में
इसकी अमिट कहानी।
स्नेह और श्रद्धा से गाती
है वीरों की बानी॥

बुंदेले हरबोलों के मुख
हमने सुनी कहानी।
खूब लड़ी मर्दानी वह थी
झाँसी वाली रानी॥

यह समाधि, यह चिर समाधि
है झाँसी की रानी की।
अंतिम लीलास्थली यही है
लक्ष्मी मर्दानी की॥

-सुभद्रा कुमारी चौहान

(2) संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया

निज रक्षा का अधिकार रहे जन-जन को,
सबकी सुविधा का भार किंतु शासन को।
मैं आर्यों का आदर्श बताने आया।
जन-सम्मुख धन को तुच्छ जताने आया।
सुख-शांति-हेतु मैं क्रांति मचाने आया,
विश्वासी का विश्वास बचाने आया,
मैं आया उनके हेतु कि जो तापित हैं,
जो विवश, विकल, बल-हीन, दीन शापित हैं।
हो जाएँ अभय वे जिन्हें कि भय भासित हैं,
जो कौणप-कुल से मूक-सदृश शासित हैं।
मैं आया, जिसमें बनी रहे मर्यादा,
बच जाय प्रबल से, मिटे न जीवन सादा।
सुख देने आया, दुःख झेलने आया,
मैं मनुष्यत्व का नाट्य खेलने आया।
मैं यहाँ एक अवलंब छोड़ने आया,
गढ़ने आया हूँ, नहीं तोड़ने आया।
मैं यहाँ जोड़ने नहीं, बाँटने आया,
जगदुपवन में झंखाड़ छाँटने आया।
मैं राज्य भोगने नहीं, भुगाने आया।
हंसों को मुक्ता-मुक्ति चुगाने आया,
भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया।
नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया।
संदेश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया,
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।
अथवा आकर्षण पुण्यभूमि का ऐसा,
अवतरित हुआ मैं, आप उच्च फल जैसा।

-मैथिलीशरण गुप्त

(2) कहानी कहना

कहानी कहना या सुनाना भी एक कला है। एक अच्छा कहानी लिखने वाला अच्छा कहानी सुनाने वाला भी हो, यह आवश्यक नहीं। यह कला अभ्यास के द्वारा प्राप्त की जा सकती है।
विद्यार्थियों को यदि इस कला से अवगत कराया जाए तो उनमें इस गुण का विकास किया जा सकता है। एक अच्छे कहानीकार में निम्नलिखित गुणों का होना अत्यंत आवश्यक होता है

1. जिस कहानी को सुनाना हो उसका सार कहानी सुनाने वाले के दिमाग में बिलकुल स्पष्ट होना चाहिए।

2. उसे सारी घटनाएँ याद होनी चाहिए जिससे वह कहानी को उलट-पलट कर न सुना दे। क्योंकि ऐसा होने पर कहानी का रस ही समाप्त हो जाता है।

3. कहानी सुनाते समय कहानी के पात्रों, तिथियों, स्थानों का नाम पूर्ण रूपेण याद होना चाहिए। केवल अनुमान लगाकर सुनाई गई कहानी अपनी वास्तविकता खो देती है।

4. भाषा और संवाद भी कहानी की जान होते हैं। भाषा का स्तर उम्र, बौद्धिक स्तर आदि के अनुकूल होने पर ही कहानी प्रभावशाली बन पाती है। संवादों में बचपना या परिपक्वता सामने बैठे श्रोतागण के अनुसार होने पर ही कहानी में रुचि जाग्रत हो सकती है।

5. कहानी को रोचक बनाने के लिए संवाद व वर्णन-दोनों का उचित मात्रा में प्रयोग किया जाना चाहिए। जिस प्रकार भोजन में उचित मात्रा में तेल, मसाले आदि डाले जाएँ तो भोजन रुचिकर बनता है ठीक उसी प्रकार संवाद और वर्णन का सही मेल ही कहानी में जान डाल सकता है।

6. कहानी सुनाते समय श्रोता के हाव-भाव को पढ़ना भी कहानीकार का मुख्य कार्य होता है, क्योंकि श्रोता की रुचि और अरुचि का पता उनके हाव-भाव से लगाकर अपनी कहानी को अधिक रोचक या सरल बनाकर सुनाने पर ही श्रोता की वाह-वाही लूटी जा सकती है।

7. कहानी सुनाने वाले की आवाज़ में एक विशिष्ट आकर्षण होना भी अत्यंत आवश्यक होता है। कहानीकार की आवाज़ का केवल मधुर होना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि उसका बुलंद होना भी जरूरी होता है। यदि आखिरी पंक्ति में बैठा श्रोता उसकी आवाज़ नहीं सुन पा रहा है तो वह कहानी उसके लिए रुचिकर कैसे हो सकती है। इसका अर्थ यह नहीं कि कहानी सुनाने वाला चिल्ला-चिल्लाकर कहानी सुनाए। ऐसा करने पर श्रोतागण के सिर में दर्द भी हो सकता है और अरुचिवश वे वहाँ से उठकर भी जा सकते हैं।

8. कहानी को रोचक बनाने के लिए अच्छे मुहावरों व सूक्तियों के द्वारा भाषा को लच्छेदार बनाना भी आवश्यक होता है। सीधी, सरल भाषा ज्यादा देर तक श्रोताओं को नहीं बाँध सकती है।

9. लच्छेदार भाषा के साथ कहानी कहने वाले की आवाज़ में उतार-चढ़ाव होना भी अत्यंत आवश्यक होता है। आवाज़ का जादू अच्छे-अच्छों के होश उड़ा देता है। एक-सी आवाज़ में कही गई कहानी श्रोता को बाँधने में असफल होती है। लेकिन आवाज़ में उतार-चढ़ाव आवश्यकता के अनुसार ही होना चाहिए अन्यथा अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती।

10. जोश और उत्साह की बात बताते समय चेहरे की प्रसन्नता तथा आवाज़ की बुलंदी तथा दुख भरी घटना सुनाते समय भाव-विभोर हो मंद आवाज़ में कही गई बात सीधी श्रोता के दिल में उतर जाती है।

11. भाव-विभोर होकर कहानी सुनाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि आपकी आवाज़ सामने बैठे श्रोताओं की आखिरी पंक्ति तक पहुँचनी चाहिए।

12. कहानी की रोचकता को बनाये रखने के लिए जिज्ञासा का बना रहना अत्यंत ज़रूरी है। श्रोता के मन में यदि हर पल यह जिज्ञासा बनी रहे कि अब आगे क्या होगा तो कहानी सुनने का आनंद दुगुना हो जाता है। कहानी सुनाने वाले के द्वारा इस जिज्ञासा को बनाए रखना अति आवश्यक होता है।

13. कहानी बहुत अधिक लंबी नहीं होनी चाहिए अन्यथा श्रोता बोरियत का अनुभव करने लगते हैं।

14. कहानी किसी उद्देश्य से परिपूर्ण हो यह भी अति आवश्यक है। निश्चित निष्कर्ष को लेकर सुनाई गई कहानी अधिक रुचिकर होती है।

15. कहानी में हास्य-व्यंग्य का पुट होना चाहिए।

16. कहानी में मार्मिक संवाद अनिवार्य है।

अभ्यास प्रश्न

1. निम्नलिखित कहानियों को कक्षा में रोचक ढंग से सुनाइए-

(1) एक बार राजा भोज को सपने में व्यक्ति का रूप धारण कर स्वयं ‘सत्य’ ने दर्शन दिए। राजा के पूछने पर सत्य ने बताया “मैं सत्य हूँ जो अंधों की आँखें खोलता हूँ और मृग-तृष्णा में भटके हुओं का भ्रम मिटाता हूँ। यदि तुझमें साहस है तो मेरे साथ चल मैं तेरे भी मन की जाँच कर लूँ।” चूँकि राजा भोज को अपने सत्कर्मों का बहुत अहंकार था इसलिए वह तुरंत ही इसके लिए सहमत हो गया।

सत्य उसे अपने साथ मंदिर के उस ऊँचे दरवाजे पर ले गया, जहाँ से एक सुंदर बाग दिखाई देता था। उस बाग में तीन पेड़ लगे हुए थे। सत्य ने राजा से पूछा ‘क्या तुम बता सकते हो कि ये पेड़ किसके हैं?’ राजा ने प्रसन्नता से भरकर उत्तर दिया “ये तीनों ही पेड़ मेरे पुण्य कर्म का प्रतिफल हैं। लाल-लाल फलों से लदा हुआ पेड़ मेरे दान का है। पीले फल मेरे न्याय और सफ़ेद फल मेरे तप का प्रभाव दिखलाते हैं।

“सत्य ने राजा से कहा, “चल, उन पेड़ों के पास चलकर छूकर देखते हैं।”सत्य ने जैसे ही पहले वृक्ष को छुआ तो क्या देखता है कि सारे फल उसी तरह पृथ्वी पर गिरे जिस प्रकार आसमान से ओले गिरते हैं। दूसरे पेड़ों को भी छूने पर वही हाल हुआ जो प्रथम का हुआ था। राजा की आँखें नीची हो गईं और उसने सत्य से इसका कारण पूछा। सत्य ने कहा “प्रथम पेड़ के फल इसलिए गिर गये क्योंकि तूने जो कुछ भी किया वह ईश्वर की भक्ति या जीवों के प्रेम से वशीभूत होकर नहीं किया।

तूने अपने आपको भुलाने और मिथ्या प्रशंसा पाने के लिए यह सब किया था।” पीले फलों से युक्त पेड़ के संदर्भ में सत्य ने कहा, “जिस न्याय की तू बात करता है वह न्याय तूने मात्र अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए किया है। तू अच्छी तरह से जानता है कि न्याय किसी राज्य की जड़ है और जिस राज्य में न्याय नहीं, वह तो बे-नींव का घर है, जो बुढ़िया के दाँतों की तरह हिलता है, अब गिरा, तब गिरा।

“सफ़ेद फल जो कि राजा के अनुसार उसके तप के फल थे के बारे में सत्य ने कहा, “ये फल तप ने नहीं, बल्कि अहंकार ने लगा रखे थे। तेरी ईश्वर की भक्ति, जीवों के प्रति दया, वंदना, विनती सभी इसलिए की गई थी – मानों ईश्वर तुम्हारे बहकावे में आकर स्वर्ग का राजा बना दे।” अंत में, सत्य ने कहा “मनुष्य तो केवल कर्मों के अनुसार दूसरे मनुष्य की भावना का विचार करता है और ईश्वर मनुष्य के मन की भावना के अनुसार उसके कर्मों का हिसाब लेता है।

अतः इन पेड़ों के फल उसी व्यक्ति के हिस्से में आते हैं जो शुद्ध हृदय, निष्कपट, निरहंकार होकर अपना कर्तव्य समझते हुए अपना कार्य करता है। ईश्वर उसी का निवेदन स्वीकार करते हैं जो नम्रता और श्रद्धा के साथ सच्चे मन से प्रार्थना करता है।”

(2) एक बार मंथरक नाम के जुलाहे के सब उपकरण, जो कपड़ा बुनने के काम आते थे, टूट गए। उपकरणों को फिर से बनाने के लिए लकड़ी की ज़रूरत थी। लकड़ी काटने की कुल्हाड़ी लेकर वह समुद्र तट पर स्थित वन की ओर चल दिया। समुद्र के किनारे पहुँचकर उसने एक वृक्ष देखा और सोचा कि इसकी लकड़ी से उसके सब उपकरण बन जाएँगे। यह सोचकर वह वृक्ष के तने में कुल्हाड़ी मारने को ही था कि वृक्ष की शाखा पर बैठे हुए एक देव ने उससे कहा -“मैं वृक्ष पर सुख से रहता हूँ और समुद्र की शीतल हवा का आनंद लेता हूँ! तुम्हें वृक्ष को काटना उचित नहीं, दूसरे के सुख को छीनने वाला कभी सुखी नहीं होता।

“जुलाहे ने कहा – “मैं भी लाचार हूँ। लकड़ी के बिना मेरे उपकरण नहीं बनेंगे, कपड़ा नहीं बुना जाएगा, जिससे मेरे कुटुंबी मर जाएंगे। इसलिए अच्छा यही है कि तुम किसी और वृक्ष का आश्रय लो, मैं इस वृक्ष की शाखाएँ काटने को विवश हूँ।
” देव ने कहा – “मंथरक! मैं तुम्हारे उत्तर से प्रसन्न हूँ। तुम कोई भी एक वर माँग लो, मैं उसे पूरा करूँगा। केवल इस वृक्ष को मत काटो।
” मंथरक बोला – “यदि यही बात है तो मुझे कुछ देर का अवकाश दो। मैं अभी घर जाकर अपनी पत्नी से और मित्र से सलाह करके तुमसे वर मागूंगा।

” देव ने कहा – “मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा।
” गाँव पहुँचने के बाद मंथरक की भेंट अपने एक मित्र नाई से हो गई। उसने उससे पूछा – “मित्र! एक देव मुझे वरदान दे रहा है। मैं तुमसे पूछने आया हूँ कि कौन-सा वरदान माँगा जाए?
” नाई ने कहा – “यदि ऐसा है तो राज्य माँग ले। मैं तेरा मंत्री बन जाऊँगा, हम सुख से रहेंगे।

” तब मंथरक ने अपनी पत्नी से सलाह लेने के बाद वरदान का निश्चय लेने की बात नाई से कही। नाई ने स्त्रियों के साथ ऐसी मंत्रणा करना नीति विरुद्ध बतलाया। उसने सम्मति दी कि स्त्रियाँ प्रायः स्वार्थ-परायण होती हैं। अपने सुख-साधन के अतिरिक्त उन्हें कुछ भी सूझ नहीं सकता। अपने पुत्र को भी जब वे प्यार करती हैं, तो भविष्य में उसके द्वारा सुख की कामनाओं से ही करती हैं।

मंथरक ने फिर भी पत्नी से सलाह लिए बिना कुछ भी न करने का विचार प्रकट किया। घर पहुँचकर वह पत्नी से बोला – “आज मुझे एक देव मिला है वह एक वरदान देने को उद्यत है। नाई की सलाह है कि राज्य माँग लिया जाए। तू बता कि कौन-सी चीज़ माँगी जाए?
” पत्नी ने उत्तर दिया – “राज्य-शासन का काम बहुत कष्टप्रद है। संधि-विग्रह आदि से ही राजा को अवकाश नहीं मिलता। राजमुकुट प्रायः कांटों का ताज होता है। ऐसे राज्य से क्या लाभ जो सुख न दे!
” मंथरक ने कहा – “प्रिये! तुम्हारी बात सच है। किंतु प्रश्न यह है कि राज्य न माँगा जाए तो क्या माँगा जाए?” मंथरक की पत्नी ने उत्तर दिया –

“तुम अकेले दो हाथों से जितना कपडा बुनते हो उसमें भी हमारा व्यय पूरा हो जाता है। यदि तुम्हारे हाथ दो की जगह चार हों और सिर भी एक की जगह दो हों तो कितना अच्छा हो। तब हमारे पास आज की अपेक्षा दुगुना कपड़ा हो जाएगा। इससे समाज में हमारा मान बढ़ेगा।
” मंथरक को पत्नी की बात जंच गई। समुद्र-तट पर जाकर वह देव से बोला – “यदि आप वर देना ही चाहते हैं तो यह वर दें कि मैं चार हाथ और दो सिर वाला हो जाऊँ।
” मंथरक के कहने के साथ ही उसका मनोरथ पूरा हो गया। उसके दो सिर और चार हाथ हो गए, किंतु इस बदली हालत में वह गाँव में आया तो लोगों ने उसे राक्षस समझ लिया और राक्षस-राक्षस कहकर सब उस पर टूट पड़े।

(3) भाषण कला

भाषण, भाषा के विभिन्न कौशलों की एक मिश्रित अभिव्यक्ति है। भाषण कौशल की प्रक्रिया में संरचनाओं का सुव्यवस्थित चयन, शब्दों की द्रुतगति से प्रवाहपूर्ण प्रयोग तथा एक निश्चित संख्या में उनको जोड़ना शामिल है। इसमें शब्द समूह और वाक्य साँचों का क्रमबद्ध प्रयोग होता है। भाषण कौशल को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है – एक उच्चारण और दूसरा अभिव्यक्ति। उच्चारण के अंतर्गत समस्त ध्वनि व्यवस्था के प्रायोगिक रूप का समावेश रहता है। विद्यार्थियों को चाहिए कि अपने भाषा को तैयार करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखें –

  • भाषण ऐसा हो कि श्रोता उसमें रुचि ले सकें।
  • सदैव भाषण देते समय आरोह अवरोह का ध्यान रखा जाना चाहिए।
  • भाषण विषयानुकूल तथा भावानुकूल होना चाहिए।
  • भाषण देते समय क्रियात्मक अभिनय का समावेश करना चाहिए।
  • भाषण में हास्य व्यंग्य का पुट होना भी आवश्यक होता है, जिससे श्रोतागण उसको रुचिपूर्वक सुन सकें।
  • विषय का प्रस्तुतीकरण रोचक व नवीन ढंग से होना चाहिए, अर्थात् उसमें कुछ नयापन होना चाहिए।
  • भाषण में कठिन शब्दों का प्रयोग न करते हुए आम बोलचाल (हिंदुस्तानी) की भाषा का प्रयोग करना चाहिए ताकि लोग उसे आसानी से समझ सकें।
  • वक्ता को भाषा के विभिन्न प्रकार के नवीन शब्दों और भाषा के अन्य नवीन तथ्यों का सहज रूप से अभ्यास होना चाहिए।
  • वक्ता चित्रात्मक तथा प्रतीकात्मक शैली का प्रयोग कर भाषण को और भी अधिक प्रभावशाली बना सकता है।
  • विषय से संबंधित कोई विशिष्ट उक्ति या प्रसिद्ध कवि की कविताओं को यदि वक्ता अपने भाषण में जोड़ लेता है तो उसके भाषण में चार चाँद लग जाते हैं।
  • भाषण देते समय वक्ता को शब्दों के उच्चारण पर विशेष ध्यान देना चाहिए वरना अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है।
  • छोटे वाक्यों का प्रयोग करना वक्ता के लिए अधिक प्रभावशाली हो सकता है।
  • भाषण को तैयार कर यदि वक्ता उसे टेप पर पुनः सुनता है तो वह स्वयं अपनी गलतियों को पहचानकर उन्हें ठीक कर सकता
  • भाषण जोश और उत्साह से भरा होना चाहिए।
  • भाषण में संबोधन का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। श्रोतागण को किया गया संबोधन अत्यंत सहज व आत्मीय होना चाहिए। इस बात का विशेष ध्यान रहे कि केवल सभापति या निर्णायक गण ही वहाँ उपस्थित नहीं हैं।
  • भाषण की शुरुआत पर वक्ता को विशेष ध्यान देना चाहिए। जितनी अधिक प्रभावशाली शुरुआत होगी उतनी ही अधिक श्रोताओं की प्रशंसा व एकाग्रता वक्ता को मिलेगी।
  • भाषण का अंत कभी भी अधूरा नहीं रहना चाहिए। अर्थात् भाषण में पूर्णता होनी चाहिए। श्रोताओं को यह न लगे कि आप अपनी बात को स्पष्ट करने में असफल रहे हैं।
  • भाषण में परिपक्वता अवश्य होनी चाहिए अर्थात् उसमें विषय से हटकर कुछ भी न कहा गया हो तथा कम-से-कम शब्दों में अपनी बात को स्पष्ट किया गया हो।

(4) साक्षात्कार लेना व देना साक्षात्कार लेना एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। साक्षात्कार लेने वाला व्यक्ति अभ्यर्थियों की योग्यता की पूर्ण जाँच करता है। वह अभ्यर्थी की हर क्रिया व प्रतिक्रिया को ध्यान से देखता व सुनता है। साक्षात्कार का कार्य शैक्षणिक योग्यता के साथ-साथ स्वभाव को भी जानना होता है।

साक्षात्कार लेते वक्त ध्यान रखने योग्य बातें-

  • अभ्यर्थी का आत्मविश्वास बनाए रखना चाहिए।
  • बातचीत का आरंभ परिचयात्मक होना चाहिए।
  • प्रश्नों की शुरुआत व्यक्तिगत जीवन से संबंधित सामान्य प्रश्नों से करनी चाहिए।
  • साक्षात्कार-कर्ता के प्रश्न संक्षिप्त व स्पष्ट होने चाहिए।
  • अभ्यर्थी द्वारा दिए गए उत्तरों को अनसुना न कर ध्यान से सुनना चाहिए।
  • अभ्यर्थी द्वारा गलत या भ्रामक उत्तर देने पर एकाध स्पष्टीकरण लेना ही पर्याप्त है।
  • यदि अभ्यर्थी किसी प्रश्न का उत्तर नहीं देता है तो उससे अगला प्रश्न पूछ लेना चाहिए।
  • साक्षात्कार को अधिक लंबा नहीं खींचना चाहिए।
  • यदि अभ्यर्थी उत्तर को लंबा खींच रहा हो तो आप बीच में यह कहकर अगला प्रश्न पूछ सकते हैं – ‘आपकी बात ठीक है। आप कृपया यह बताएँ कि।’
  • जिस पद हेतु साक्षात्कार लिया जा रहा है, उससे संबंधित एक-दो प्रश्न अवश्य करें।
  • अभ्यर्थी से आत्मीयतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए।

उदाहरण

उत्तर प्रदेश राज्य की प्रतिष्ठित न्यायिक सेवा परीक्षा में सिविल जज पद पर सातवें स्थान पर पहले प्रयास में ही चयनित होकर श्री कृष्ण चंद्र पांडेय ने एक महत्त्वपूर्ण सफलता अर्जित की है, प्रशांत द्विवेदी ने उनका साक्षात्कार लिया, जो इस प्रकार है –

प्रशांत द्विवेदी – आपकी इस सफलता के लिए बधाई।
कृष्ण चंद्र – जी, धन्यवाद।
प्रशांत द्विवेदी – आपको अपने चयन की सूचना कैसे मिली?
कृष्ण चंद्र – मेरे मित्र हरि प्रकाश शुक्ल APO इलाहाबाद में कार्यरत, द्वारा मुरादाबाद ट्रेनिंग सेंटर पर फ़ोन द्वारा प्राप्त हुई।
प्रशांत द्विवेदी – चयन होने पर आपको कैसा लगा?
कृष्ण चंद्र – मुझे गलत सूचना मिली कि मैं असफल हो गया हूँ, लगभग आधे घंटे पश्चात् मुझे इस सफलता की सूचना प्राप्त हुई, इस प्रकार मैंने असफलता का दंश और सफलता की
प्रसन्नता – दोनों का अनुभव किया।
प्रशांत द्विवेदी – आपको न्यायिक सेवा में जाने की प्रेरणा कैसे मिली?
कृष्ण चंद्र – बड़े बहनोई श्री नलिनीश शुक्ला, एडवोकेट ने मुझे प्रेरित किया कि मैं इसे अपना कैरियर बनाऊँ। उन्होंने मुझे सदैव इसके लिए प्रेरित किया, इसके अतिरिक्त मुझे विधि विभाग गोरखपुर विश्वविद्यालय के पूर्ण विभागाध्यक्ष प्रो. उदय राज राय ने भी प्रेरित किया।
प्रशांत द्विवेदी – यह सफलता आपने कितने प्रयासों में अर्जित की?
कृष्ण चंद्र – यह मेरा पहला प्रयास था।
प्रशांत दविवेदी – आपने इस परीक्षा के लिए तैयारी किस प्रकार की?
कृष्ण चंद्र – कुछ चुनिंदा बिंदुओं पर प्रामाणिक पुस्तकों से नोट्स बनाए; Bare Acts का सूक्ष्म अवलोकन किया, L-L.M में Interpretation of Statue एक विषय होने के कारण Bare Acts के सूक्ष्म निर्वचन पर ध्यान केंद्रित किया, विभिन्न धाराओं को Co-relate करके अध्ययन किया। मूलतः नोट्स की अपेक्षा किताबें मेरे अध्ययन का केंद्र-बिंदु रहीं। प्रो. रमेश चंद्र श्रीवास्तव जी के निर्देशन में एल-एल.एम. (फाइनल) में ‘हितग्राही में अनुयोजन का अधिकार’ विषय पर डिजर्टेशन लिखने के कारण मेरी लेखनी परिष्कृत हुई, इसका भी लाभ मुझे इस परीक्षा में मिला।
प्रशांत द्विवेदी – आपकी सफलता का मूल मंत्र क्या रहा?
कृष्ण चंद्र – आत्मविश्वास, दृढ़ निश्चय, कठिन परिश्रम, एकाग्रता एवं कभी न हार मानने वाली अदम्य जिजीविषा। इसके अलावा गुरुजनों का आशीर्वाद, मित्रों का प्रेम, प्रोत्साहन, पारिवारिक सहयोग भी इसमें सहायक हुए।
प्रशांत द्विवेदी – साक्षात्कार में पूछे गए प्रश्न क्या थे?
कृष्ण चंद्र – साक्षात्कार 3 अगस्त, 20XX दिन शुक्रवार के दिन श्री के.बी. पांडेय (चेयरमैन, उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग) के बोर्ड में, बोर्ड के अन्य सदस्य न्यायमूर्ति वी. के. राव एवं प्रोफेसर खान (अलीगढ़ विश्वविद्यालय) थे, साक्षात्कार लगभग 30 मिनट चला। बोर्ड का रवैया सहयोगात्मक था। साक्षात्कार का आरंभ प्रो. पांडेय ने किया एवं समापन प्रो० खान द्वारा हुआ। सामान्य परिचयात्मक प्रश्नों के अलावा मुझसे कई प्रश्न पूछे गए।
प्रशांत द्विवेदी – प्रतियोगिता दर्पण पत्रिका के विषय में आपके क्या विचार हैं?
कृष्ण चंद्र – यह पत्रिका सिविल सर्विस के परीक्षार्थियों के लिए रामबाण है। संविधान पर इसका अतिरिक्तांक न्यायिक परीक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी है। यदि पत्रिका में कुछ विधिक लेख भी नियमित रूप से प्रकाशित होने लगे तो यह न्यायिक परीक्षा के लिए भी समान रूप से उपयोगी हो जाएगी।
प्रशांत द्विवेदी – आगामी प्रतियोगियों के लिए आप क्या परामर्श देंगे?
कृष्ण चंद्र – दृढ़ आत्मविश्वास के साथ गंभीर परिश्रमयुक्त सतत् एवं सुव्यवस्थित अध्ययन ही सफलता की सीढ़ी है। Revision is a must पढ़ें, पर स्वयं को Confuse होने से बचाए रखें, बस अर्जुन की तरह लक्ष्य पर एकाग्रचित रहें, अंततः सफलता वरण करेगी ही।

साक्षात्कार देना

छात्रों को अनेक कार्यों के लिए साक्षात्कार देना होता है। कुछ में इसका डर बैठ जाता है। वस्तुत: साक्षात्कार परीक्षा जैसा होता है। इसमें अल्प समय में बहुत कुछ कहना होता है। अभ्यर्थी को दो कार्य करने होते हैं – स्वयं को परिचित कराना तथा साक्षात्कार मंडल को प्रभावित करना।
साक्षात्कार देने में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना होता है-

  • साक्षात्कार देते वक्त सहज रहें।
  • अपनी बात को सरल ढंग से कहें।
  • साक्षात्कार में जाते समय वेशभूषा संतुलित होनी चाहिए।
  • साक्षात्कार पर जाने से पहले वरिष्ठ छात्रों से अभ्यास करें।
  • साक्षात्कार-कक्ष में प्रवेश करने से पहले मुख्य साक्षात्कार कर्ता की ओर मुख करके अंदर आने की अनुमति लें – “क्या मैं अंदर आ सकता हूँ?”
  • अंदर आने की अनुमति मिलने के बाद आप संतुलित कदमों से उस करसी की ओर बढें जहाँ अभ्यर्थी को बिठाया जाता है। इस क्रिया में आप अपना मुख साक्षात्कार मंडल की ओर रखें। मुसकराते हुए प्रमुख साक्षात्कार कर्ता और अन्य सभी को हाथ जोड़कर नमस्कार कहें। नमस्कार करते समय चेहरे पर विनय का भाव रखें। सम्मान प्रकट करने के लिए सिर तथा शरीर को
  • आपके हाथ में फाइल या कुछ कागज़ात होंगे। इसलिए ‘फाइल सहित नमस्कार करने का ढंग सीख लें।
  • साक्षात्कार के दौरान आप जिन प्रमाण-पत्रों, उपलब्धियों या कागज़ों-पुस्तकों को साक्षात्कार-मंडल को दिखाना चाहते हैं, उन्हें पहले से ही
  • सुव्यवस्थित और ऊपर-ऊपर तैयार रखें। 9. जब तक कुरसी पर बैठने के लिए नहीं कहा जाए, तब तक खड़े रहें।
  • साक्षात्कार के दौरान स्वयं को चुस्त व तत्पर रखें।
  • प्रश्न को आराम व ध्यान से समझें।
  • पूछे गए प्रश्न का उत्तर एकदम न देकर समझकर देना चाहिए।
  • प्रश्न की प्रवृत्ति के अनुसार उत्तर देने में समय लगाना चाहिए।
  • आप किसी मुद्दे पर कितने ही विश्वासपूर्ण हों, परंतु अपनी बात पर अड़ना नहीं चाहिए।
  • यदि साक्षात्कार-कर्ता आपकी बात से असहमत हो तो आप अपनी बात कहते हुए उनके मत को भी सम्मान दें।
  • प्रश्न का उत्तर न देने पर स्पष्ट कहें – क्षमा कीजिए, मुझे इसका ज्ञान नहीं है।
  • सारी बातचीत में चेहरे पर घबराहट व तनाव नहीं आना चाहिए।

(5) वर्णन करना

वर्णन मौखिक भाषा-व्यवहार का एक महत्त्वपूर्ण रूप है। मनुष्य विभिन्न स्थितियों, व्यक्तियों और वस्तुओं का अनुभव करता है और उनका वर्णन करता है, किंतु अनेक बार प्रशिक्षण के अभाव के कारण वर्णन अव्यवस्थित हो जाता है। कई बार महत्त्वपूर्ण बिंदुओं की उपेक्षा हो जाती है तथा सारा वर्णन प्रभावहीन हो जाता है। इसलिए छात्रों को वर्णन करने की कला का विधिवत् प्रशिक्षण दिया जाए। वर्णन की कुशलता इसी में निहित है कि वर्णनकर्ता पूर्ण आत्मविश्वास और रोचक ढंग से इस प्रकार वर्णन करें कि श्रोता का उत्साह और रुचि बनी रहे। वर्णन करने की कला की क्षमता का विकास बाल सभा, कक्षा आदि में किसी दृश्य, मनोरंजन, प्रसंग, समारोह, घटना आदि के वर्णन द्वारा किया जा सकता है।

उदाहरण

(क) राजस्थान के किसी गाँव की यात्रा का वर्णन – मुझे मालूम नहीं था कि भारत में ‘तिलोनिया’ नाम की भी कोई जगह है जहाँ हमारे देश के समसामयिक इतिहास का एक विस्मयकारी पन्ना लिखा जा रहा है। किसी बड़े शहर में रहते हुए हम केवल अखबार द्वारा ही देश-विदेश के बारे में अपनी जानकारी हासिल करते हैं और आजकल तो इस जानकारी से मन अशांत व क्षुब्ध ही होता है। उस वक्त तक तिलोनिया के बारे में मुझे इतनी ही जानकारी थी कि वहाँ पर एक स्वावलंबन विकास केंद्र चल रहा है, जिसे स्थानीय ग्रामवासी, स्त्री-पुरुष मिल-जुलकर चला रहे हैं। बस, इतना ही और मैं वहाँ अपनी किसी प्रयोजन से भी नहीं जा रहा था।

मुंबई को जाने वाली जरमैली सड़क को छोड़कर हमारी जीप एक तंग राजस्थानी सड़क पर आ गई थी। मतलब साफ़, समतल सड़क को छोड़कर ऊबड़-खाबड़ सड़क पर आ गई थी पर यहाँ भी दूर-दूर तक कुछ दिखाई नहीं देता था, केवल सपाट मैदान, कंटीली झाड़ियों के झुरमुट और दोपहर का बोझिल वातावरण ……।

(ख) किसी रमणीक स्थान की यात्रा का वर्णन – पिछले वर्ष गरमियों में हमने पिता जी के साथ बद्रीनाथ व केदारनाथ की यात्रा का हठ किया। पिता जी अपने साथ ले जाने को तैयार न थे। उन्होंने हमें बताया कि इन स्थानों की यात्रा करना सहज नहीं है। विशेष रूप से केदारनाथ की यात्रा के अंतिम चरण में लगभग 16 किलोमीटर पैदल चलाना पड़ता है। इस पैदल यात्रा में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं। हमने पिता जी के आदेश को अस्वीकार करते हए उनके साथ जाने का हठ किया।

अत: पिता जी हमें अपने साथ ले जाने के लिए तैयार हो गए। दिल्ली से बस द्वारा हम लोग हरिद्वार पहुँचे। हम लोग हरिद्वार दो दिन रुके। गंगा मैया के पवित्र जल में स्नान करके मेरा तन-मन शीतल हो गया। गंगा का विराट एवं तीव्र प्रवाह देखकर मैं विस्मय विमुग्ध हो गया। संध्या के समय गंगा मैया की आरती का दृश्य देखकर मेरा मन मयूर नृत्य कर उठा। हरकी पौड़ी पर उस समय हजारों लोग उपस्थित थे।

बहुत से भक्तजन दोनों हाथों में पुष्प तथा प्रज्ज्वलित दीप रखकर गंगा जी में प्रवाहित कर रहे थे। अंधकार की चादर ने धरती को ढक लिया था। आकाश के वक्ष पर असंख्य नक्षत्र जगमगा रहे थे और गंगा की तरंगों पर तैरते छोटे-छोटे दीपक एक दिव्य दृश्य उपस्थित कर रहे थे। हरिद्वार में हमने पावन धाम, भीमगोडा, सप्तऋषि आश्रम, दक्षेश्वर महादेव, मंसा देवी, चंडी देवी आदि पवित्र स्थानों के दर्शन किए।

दो दिन के पश्चात् हम लोग बस द्वारा ऋषिकेश पहुँचे। हमारे मन में बद्रीनाथ तथा केदारनाथ के पवित्र स्थानों को देखने की उत्कंठा थी अतः हम ऋषिकेश में नहीं रुके तथा केदारनाथ जाने के लिए यात्रा-पत्र लेने वालों की पंक्ति में खड़े हो गए। तभी हमें ज्ञात हुआ कि यात्रा-पत्र लेने से पहले हैज़े का टीका लगवाना अनिवार्य है। मुझे टीका लगवाना अच्छा नहीं लगता, परंतु मैं विवश था।

टिकट लेने के पश्चात् हम लोग अन्य यात्रियों के साथ बस में बैठ गए। कुछ देर के पश्चात् बस चल पड़ी। एक ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और दूसरी ओर तन्वंगी गंगा का प्रवाह देखते ही बनता था। पहाड़ी सड़कें निर्धन के भाग्य-सी टेढ़ी-मेढ़ी थीं। पहाड़ी वन अत्यंत मनमोहक प्रतीत हो रहे थे। दिल्ली और यहाँ के वातावरण में ज़मीन-आसमान का अंतर था। धूप निखरी हुई थी फिर भी यहाँ के वायुमंडल में शीतलता व्याप्त थी।

लगभग 56 किलोमीटर की यात्रा के पश्चात् हम लोग कर्णप्रयाग पहुँचे। यहाँ एक छोटा-सा पहाड़ी कस्बा है। यहाँ के लोगों की वेशभूषा और प्रकृति शहर के लोगों से स्पष्टतः भिन्न है। यात्रियों ने कुछ जलपान किया और यात्रा पुनः आरंभ हो गई। रुद्रप्रयाग होते हुए हम लोग श्रीनगर पहुंचे। यहाँ बस लगभग आधा घंटा रुकी। यात्रियों ने भोजन ग्रहण किया और उसके पश्चात् सोनप्रयाग होते हुए हम लोग गौरी कुंड पहुँचे।

यहाँ से केदारनाथ जाने के लिए पैदल रास्ता आरंभ हो जाता है। गौरी कुंड में एक तप्त जल का कुंड है। इस क्षेत्र में मई-जून के महीनों में भी काफ़ी सरदी पड़ती है। यहाँ एक छोटा-सा गाँव है जहाँ गरमियों के दिनों में यात्रियों का जमघट लगा रहता है। गौरी कुंड से पहाड़ी रास्ता अत्यंत दुर्गम हो जाता है। यात्री ‘जय केदारनाथ’ कहते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। लगभग 7 घंटे की यात्रा के पश्चात् हम केदारनाथ पहुँचे।

बरफ़ से ढके पहाड़ों को देखकर हम आत्म-विस्मृत हो गए। मंदाकिनी के तीव्र प्रवाह का स्वर पहाड़ियों में दिव्य संगीत की सृष्टि कर रहा था। केदारनाथ के निकट ही शंकराचार्य की समाधि के दर्शन भी हमने किए और अगले दिन यहाँ से हम बद्रीनाथ की ओर चल पड़े। रास्ते में ‘तुंगनाथ’ नामक स्थान पर बस रुकी। वहाँ का प्राकृतिक वातावरण अद्भुत है। बद्रीनाथ में भगवान विष्णु की अत्यंत भव्य मूर्ति है।

हमने बद्रीनाथ तथा पंच-शिलाओं के दर्शन किए। यहाँ मुख्य मंदिर के निकट बहती अलकनंदा का प्रवाह देखते ही बनता है। बद्रीनाथ में लगभग चार दिन रहने के बाद हरिद्वार होते हुए दिल्ली वापिस लौट आए।

(6) वाद-विवाद

वाद-विवाद किसी विषय के पक्ष-विपक्ष में विचार करने का साधन है। इसका उद्देश्य किसी विवादास्पद मसले पर जनता का ध्यान आकर्षित करना होता है। इसमें भाग लेने वाले कम से कम दो छात्र होते हैं। एक पक्ष में बोलता है तथा दूसरा विपक्ष में। ये वक्ता भरी सभा में बोलते हैं तथा पूरे सदन को संबोधित करते हैं।
वाद-विवाद में सभापति एक निर्णायक मंडल होता है। दोनों वक्ताओं का उद्देश्य पूरे सदन को अपने विचारों से सहमत करना होता है। इसमें एक-दूसरे की बात काटना व अपनी बात रखना होता है।

वाद-विवाद में ध्यान रखने योग्य बातें –

  • हर प्रतियोगी को अपने पक्ष को तर्क व मज़बूती के साथ प्रस्तुत करना चाहिए।
  • पक्ष में बोलने वाला वक्ता शांत स्वर में अपने विषय को तर्क व उदाहरणों से पुष्ट करता है।
  • विपक्ष में बोलने वाला वक्ता आक्रामक होता है। उसके स्वर में धारा प्रवाह बोलने की क्षमता होती है।
  • पक्ष या विपक्ष – दोनों वक्ताओं को व्यक्तिगत टिप्पणी, कटाक्ष व अभद्र बातों से बचना चाहिए।
  • दोनों वक्ताओं को सबसे पहले सदन को संबोधित करके विषय बताना होता है।
  • प्रारंभिक पंक्तियों में ही वक्ता को स्पष्ट कर देना चाहिए कि वह पक्ष में बोल रहा है या विपक्ष में।
  • वाद-विवाद की अपनी सीमाएँ हैं।
  • प्रायः वाद-विवाद का आरंभ इस प्रकार होता है – आदरणीय अध्यक्ष महोदय, निर्णायक मंडल व उपस्थित श्रोताओं, आज की वाद-विवाद प्रतियोगिता का विषय है
  • वाद-विवाद में भाषण कला के सभी गुणों का उपयोग करना चाहिए।

अभ्यास प्रश्न

विषय : क्या चाँद पर अंतरिक्ष यान भेजना भारत के लिए उचित है?
पक्ष में –
यह कहना कोई अतिश्योक्ति न होगी कि धरतीवासियों के लिए अंतरिक्ष विज्ञान एक कौतूहल का विषय रहा है। तारों, ग्रहों, आकाशगंगाओं का अध्ययन व अंतरिक्ष यात्रा सैकड़ों वर्षों से महत्त्वपूर्ण है। चार हज़ार वर्ष पूर्व इतालवी दार्शनिक तथा खगोलविद ब्रनो ने कहा था कि ब्रह्मांड अनगिनत तारों से भरा पड़ा है, जिनके चारों ओर असीमित मात्रा में ग्रह है, जो ‘होमोसेपियंस’ के लिए खासा शोध का विषय है और रहेगा। गौरतलब है कि मौजूदा ‘हाईटेक युग’ में अंतरिक्ष को लेकर की गई खोजों एवं अभियानों पर नज़र दौड़ाए तो इनमें एक तेज़ वृद्धि नज़र आ रही है।

इस हलचल को देखकर आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि 21वीं शताब्दी में नक्षत्रीय दोहन के लिए बहुत बड़ी राशि का निवेश किया जाने वाला है। 12 वर्षों बाद विश्वभर के वैज्ञानिकों की निगाहें ‘चंदा मामा’ 370 पर टिकी हैं और इन दिनों भारत भी ‘मिशन टू मून’ चंद्रयान भेजने (2008) का निर्णय लिया है, जो न सिर्फ प्रासंगिक, उचित, समयानुकूल व देशहित में है, अपितु इससे देश के चतुर्दिक विकास को भी एक अभूतपूर्व आयाम मिलेगा। इसके कई सबल पक्ष हैं

1. इससे जहाँ अंतरिक्ष विज्ञान के कई अनसुलझे रहस्य सुलझेंगे, वहीं भारत के चाँद पर अपनी दावेदारी होने से इसकी मिट्टी में पड़े लाखों टन हीलियम-3 से विश्व सहित भारत को आने वाले दिनों में होने वाली ऊर्जा संकट से मुक्ति मिलेगी।

2. इससे अंतरिक्ष टेक्नोलॉजी को उन्नति मिलेगी जो अंततः भारत की मिसाइल विकास कार्यक्रम को नई तथा उन्नत जानकारी देगी और भारत भी यू.एस.ए. की तरह ‘एयर डिफेंस सिस्टम’ बना सकेगा, जो पूर्णतः देशी तकनीक पर आधारित होगा। कहने का आशय है कि भारतीय लूनर मिशन की सफलता देश की सुरक्षा व खुफिया व्यवस्था को एक नया आयाम देगा।

3. हालांकि भारत जैसे गरीब व विकासशील देश में 3.75 अरब रुपए की महँगी यात्रा को अव्यावहारिक बताया जा रहा है, लेकिन मेरा एक सवाल है कि गरीबी व निर्धनता की आड़ लेकर नई तकनीक को तिलांजलि देना कहाँ की बुद्धिमानी है? इसरो के आँकड़ों पर यदि नजर दौड़ाएँ तो पाएंगे कि प्रक्षेपण और यान की परिक्रमा पर यह खर्च हमारे सालाना अंतरिक्षीय बजट में महज 5-7 फीसदी की बढ़ोत्तरी है जिसकी अनदेखी अंतरिक्ष विज्ञान और अनुसंधान की दृष्टि से सक्षम राष्ट्र भारत के लिए उचित नहीं है, ध्यातव्य है कि पिछले 30 वर्षों में भारत ने 29-30 उपग्रह स्थापित किए हैं और इन पर कुल 10-12 हज़ार करोड़ रुपए खर्च आया, जो अमरीका के 3-4 विफल हो गए, अभियानों के खर्च के बराबर है, ऐसे में चाँद पर आधिपत्य को लेकर यह खर्च सहज ही वहन किया जा सकता है, ताकि बाद में कम-से-कम हम अपने देशवासियों की अपेक्षाओं पर खरे उतर सकें। हकीकत तो यह है कि हम भारतीय भय, भूख, बेरोज़गारी व गरीबी से तो लड़-भिड़ सकते हैं, लेकिन वैचारिक, मानसिक व तकनीकी पिछड़ेपन से कदापि नहीं।

4. मैं ‘मिशन टू मून’ चंद्रयान की वकालत इसलिए भी करना चाहता हूँ कि जिस तरह आज अंटार्कटिका की अकूत खनिज संपदा पर अपना-अपना अधिकार जताने को लेकर विभिन्न देशों में आपाधापी मची हुई है उसकी तरह भविष्य में यदि चाँद की संपत्ति को लेकर कानूनी पक्ष उभरता है, तो उस समय भारत अपना पॉजिटिव पक्ष तभी पेश कर सकेगा जब आज वह चाँद पर जाने की प्रक्रिया को अंजाम देगा, इस नजरिए से भारत का ‘मिशन टू मून’ और भी प्रासंगिक व ज़रूरी हो जाता है ताकि बाद मे चाँद की चाँदी (खनिज संपदा) पर हम भी दावे पेश कर सकें।

5. विवादों में पड़कर हम एक उपलब्धि, एक अभियान, एक नई टेक्नोलॉजी को तिलांजलि नहीं दे सकते। और फिर हम अगर यह लक्ष्य पाने में देर करेंगे, तो बाजी हमारे हाथ से निकल जाएगी। ऐसी स्थिति में हमें दूसरे देशों के सामने ‘याचक मुद्रा’ में खड़ा होना पड़ेगा, जो नागवार गुजरेगा, जरा सोचिए! एक स्वाभिमानी मुल्क के वैज्ञानिक ऐसी स्थिति को किसी सूरत में गँवारा नहीं करेंगे। इतिहास गवाह है कि हर विषय व विपरीत परिस्थिति में हमारे वैज्ञानिकों ने अपने ‘सुपर ब्रेन’ का परिचय दिया है चाहे वह अमरीका द्वारा नकारे जाने पर ‘सुपर कंप्यूटर’ का आविष्कार हो या रूस से क्रायोजनिक इंजन न मिलने पर खुद के द्वारा क्रायोजनिक तकनीक का डेवलपमेंट हो या फिर स्वयं के बूते हरित क्रांति जैसे लक्ष्य को पाना हो।

अंततः इसरो के पूर्व चेयरमैन डॉ० के० कस्तूरीरंगन की मान्यता महत्त्वपूर्ण है, “समूचा भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम वैज्ञानिक जिज्ञासा पूरी करने की अपेक्षा व्यावहारिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए बन गया है, इसलिए भारत का ‘चाँद-मिशन’ भी उस दिशा में उठाया गया एक कदम होगा, जिसके तहत् देश को आर्थिक लाभ भले ही नहीं हो, लेकिन इससे टेकनोलॉजी संबंधी जो विशेष क्षमताएँ हासिल होंगी उनका इस्तेमाल स्वदेशी औद्योगिक क्षमता को पुख्ता करने में सहायक हो सकता है।
” कम-से-कम हमारे युवा वैज्ञानिकों का उत्साहवर्धन होगा तथा हमारे तकनीकी ज्ञान में वृद्धि होगी।

खैर! जो भी इसे लेकर ऊहापोह बने इतना तो तय है कि ‘मिशन टू मून-2008’ वर्तमान समय का तकाजा है क्योंकि इससे न सिर्फ तेजी से बदलती दुनिया के अंतरिक्ष में भारत का सिक्का जमेगा, अपितु नक्षत्रीय अभियानों के चुनिंदा क्लब का सदस्य बनकर भविष्य में होने वाली गतिविधियों पर भारतीय दावेदारी को महत्त्वपूर्ण व सशक्त स्थान मिलेगा।

विपक्ष में –

1. वर्तमान समय में भारत के चंद्रयान-I अभियान की चर्चा चारों ओर है और साथ ही यह विवाद भी उठ खड़ा हुआ है कि भारत द्वारा सन् 2008 में पहला चंद्रयान भेजा जाना उचित है या नहीं? मेरी दृष्टि में भारत द्वारा चंद्रमा पर यान भेजने का निर्णय अनुचित ही नहीं, निरर्थक भी है जिसके कारण निम्नांकित हैं

2. सर्वविदित है कि 21 जुलाई, 1969 को ही चंद्रमा पर अमरीकी यान अपोलो-I नील.ए. आर्मस्ट्रांग को लेकर पहुँच चुका था और उसके बाद कई यान और कई वैज्ञानिक चंद्रमा पर जा चुके हैं और कई महत्त्वपूर्ण खोजें हो चुकी हैं, चाँद के संबंध में बहुत कुछ जाना जा चुका है, फिर चंद्रमा पर 2008 में भारत द्वारा यान भेजने जाने का औचित्य क्या है?

3. भारत के इस चंद्रयान-I अभियान पर चार अरब रुपए के व्यय का अनुमान है, यदि इतने पैसे खर्च करके भारत कोई उन्नत सेटेलाइट छोड़े तो उसे संचार, सूचना आदि के क्षेत्रों में ज्यादा लाभ होगा, यदि इतने पैसे बेरोज़गारी, निरक्षरता आदि के उन्मूल पर खर्च किए जाएँ तो ठोस परिणाम संभव है।

4. अब तक जिन राष्ट्रों ने अपने यान चंद्र-तल पर भेजे हैं, उनकी उच्च तकनीक का लोहा सारा विश्व मानता है, उन राष्ट्रों की तकनीक के आगे भारतीय तकनीक अभी शैशवास्था में है, अतः हमारे भारतीय वैज्ञानिक अब तक हुई खोजों से अलग चंद्रमा पर कुछ खोज कर लेंगे यह बाद गले नहीं उतरती।

5. भारत द्वारा छोड़े गए एक सेटेलाइट में पुर्जे 60-70% विदेशी होते हैं, इस चंद्रयान में भी अधिकांश पुर्जे विदेशी ही लगे होंगे। स्पष्टतः इस अभियान से भारतीय तकनीक को कोई लाभ पहुँचने वाला नहीं है।

6. इस चंद्रयान अभियान के बाद जैसा कि कहा जा रहा है कि भारत की प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी ऐसा कुछ होने वाला नहीं है। सारे विश्व को यह पता है कि भारत के इस स्वदेशी (?) यान के सारे पुर्जे विदेशी हैं, “कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा” वाली कहावत ही चरितार्थ होती है इस भारतीय अभियान के संदर्भ में।

7. भारत की इस अलाभकारी योजना के पीछे न सिर्फ पैसे बर्बाद होंगे, बल्कि मानव ऊर्जा जो किसी अन्य तरफ लगाए जाने पर कुछ नई खोज कर सकती है, वह भी बर्बाद होगी। 7. भारत जैसे गरीब राष्ट्र में जहाँ एक ओर लोगों की न्यूनतम बुनियादी मानवीय आवश्यकताएँ यथा भोजन, वस्त्र, आवास तक उपलब्ध नहीं है, वहीं दूसरी ओर इतने रुपए चंद्रयान-I जैसी अलाभकारी योजनाओं पर खर्च किए जाएँ, यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। अंततः इतना ही कहा जा सकता है कि चर्चित चंद्रयान-I अभियान अनावश्यक एवं अनुचित है और हमारे नीति निर्धारकों को इस प्रकार के अनावश्यक कार्यों से परहेज करना चाहिए।

(7) उद्घोषणा/कार्यक्रम प्रस्तुति

उद्घोषणा करना भी एक विशेष कला है। एक कुशल मंच संचालक सभी कार्यक्रमों में जान फूंक सकता है। उद्घोषणा वह कला है, जिसके आधार पर दर्शकों व श्रोताओं की रुचि व जिज्ञासा को बनाए रखा जा सकता है। उद्घोषक के पास हाज़िरजवाबी, प्रेरक प्रसंगों का भंडार तथा हास्य प्रसंगों का भंडार होना चाहिए।

उद्घोषणा करते वक्त निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए –

  • उद्घोषक को सुखद और शालीन वेशभूषा में मंच पर आना चाहिए।
  • उसके हाथों में फाइल और पेन होना चाहिए।
  • उसके पास प्रस्तुत होने वाले सभी कार्यक्रमों की पूरी जानकारी होनी चाहिए।
  • उद्घोषक को यह भी जान लेना चाहिए कि प्रस्तुत होने वाले कार्यक्रम का मुख्य भाव या विषय क्या है ? उद्घोषक को कार्यक्रम पेश होने से पहले
  • वैसी ही भूमिका देनी चाहिए। 5. कार्यक्रम की सफल प्रस्तुति के बाद मंच से उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। वह प्रशंसा ऐसी हो कि श्रोताओं के मन में जो भाव चल रहे हों, लगभग उसी को कहना चाहिए।
  • उद्घोषक ही श्रोताओं से तालियाँ बजवाता है तथा कलाकारों व श्रोताओं का मनोबल ऊँचा रखता है। उसे कार्यक्रम की प्रशंसा से ऐसा माहौल बनाना चाहिए, जिससे हॉल तालियों से गूंज उठे।
  • यदि उद्घोषक को मशहूर कवियों या विचारकों की छोटी-छोटी काव्य पंक्तियाँ, सूक्तियाँ या शेर आदि याद हों और वह उचित अवसर पर उन्हें कुशलता से सुना दे तो कार्यक्रम का रंग ही कुछ और हो जाता है।
  • उद्घोषक का मुख्य काम होता है – प्रस्तुत होने वाले कार्यक्रमों का परिचय देना और उनका आनंद लेने के लिए श्रोताओं को तैयार करना। इसके लिए उसे अलग से समय नहीं लेना चाहिए।
  • उद्घोषक को कम-से-कम बोलना चाहिए। दो कार्यक्रमों के बीच में आधे मिनट से दो मिनट का जो खाली समय होता है, उसे बस उसी का ही इस्तेमाल करना चाहिए।
  • उद्घोषक की आवाज़ सुरीली होनी चाहिए।
  • उद्घोषक तथा समाचार वाचक में अंतर स्पष्ट होना चाहिए।

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